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अनेकान्त
[किरण कोई उल्लेख नहीं मिलता। किन्त यह प्रति बहुत प्राचीन पादा पर्वते । वरसत्तर उत्तमच । मेरउ कारनाम। है इसलिये इसका टीकाकार भी कोई प्राचीन भावार्य इति रामायणे नवति संधिः समासः। एवं विद्वान् होना चाहिए ऐसा अनुमाव किया जा सकता
गेमिणाह चरिउ (कवि दामोदर) है टीकाकारने पउमचरिवमेंसे अपशके कठिन शब्दोंको
यह ग्रन्थ अपभ्रंश भाषामें रचा गया है इसके कर्ता लेकर उनकी संस्कृत भाषामें टीका अथवा पर्यायवाची
महाकवि दामोदर है। यह ग्रंथ प्राप्ति भी जयपुरके बड़े शम्म लिख दिये हैं। टीका विशेष विस्तृन नहीं। उम
मन्दिरजीके शास्त्रभंडार में उपलब्ध हुई है। इसकी चरियकी १० सम्धियोंकी टीका देव पत्रोंमें ही समान
रचना महामुनि कमल भद्रके सम्मुख एवं पंडित रामचंद्रके कर दी गई है।
पाशीर्वादसे समाप्त हुई थी ऐसा प्रन्थ प्रतिक पुष्पिका प्रति बहुत प्राचीन है तथा वर अत्यधिक जीर्ण हो वाक्यसे स्पष्ट है । प्रति अपूर्ण है था जीर्ण अवस्थामें है। चुकी है इसलिए इसकी प्रतिलिपि होना आवश्यक है। रचनाकानके विषयमें इससे कोई सहायता नहीं मिलती। इसके बीचके कितने हो पत्र फट गये हैं तथा शेष पत्र भी यद्यपि यह थ कमसे कम ४-५संधियाम विभक्त होगा उसी अवस्थामें होते जा रहे हैं। यह प्रति शास्त्रभरद्वार- लेकिन उपलब्ध प्रतिके कडवकोंकी संख्या संधिके अनुसार न की बोरियों में बंधे हुये तथा बेकार समझे जाने वाले स्फुट चलकर एक साथ चलती है। ४५ पर११७कडधक हैं। ऋटित एवं जीर्ण-शीर्थ पत्रों में बिखरी हुई थी। तथा इन इस प्रतिमें तीन संधियां प्राप्त है चूंकि ग्रंथ प्रति अपूर्ण है पत्रोंको देखनेके समय यह प्रति मिली थी। यह टीका इसलिए ग्रंथ में अन्य संधियाँ भी होनी चाहिए । प्रथम संधिमें पउमचरियके सम्पादनके समय बहुत उपयोगी सिद्ध होगी मुख्यतानेमिनाथ स्वामीकी जन्मोपत्ति, द्वितीय संधिमें जरासंध ऐसा मेरा अनुमान है।
और कृष्णका संग्राम तथा तृतीय संधिमें भगवान् नेमिनाथटिप्पणकारने टीका प्रारम्भ करनेके पूर्व निम्न प्रकार के विवाहका वर्णन दिया हुना है। इस प्रकार ग्रंथमें दो मंगलाचरण किया है
संधियों और होंगी जिनमें नेमिनाथ स्वामीके वैराग्य एवं स्वयंभुवं महावीरं प्रणिपत्य जगद्गुरूं।
मोर गमन भादिका वर्णन होगा। प्रथम संधिकी समाप्ति रामायणस्य वयामि टिप्पणं मातशक्तितः ॥
पुष्पिका इस प्रकार है-इह मिशाहचरिए महामुण
कम्बनमा परक्खे महाकइ कणिट्ट दामोयर विरहए पौडय इस संस्कृत टिप्पणका एक उदाहरण देखिये
रामचंद्राएसिए महसु अवगाएउ आयंरिणए बम्मुपत्ति नृतीय मंबिका प्रथम कहवक
णामा पढमो संधि परिच्छेनो सम्मत्तो। गयसंतो-गतश्रमो अथवा गते ज्ञाने खांतमनो यस्य स ग्रंथतिका शेष भाग अन्वेषणीय है। यह संभवतः गत खांतः । महु मधूकः । माहवी अति मुक्तकलता । कुर- पत्र टूट जाने या दीमक प्राधिके द्वारा खण्डित हुआ है। गेहिं केदारैः। प्रसस्थो पिप्पलः। खजूरि-
पिखजूरी।मालूर। अतः इसकी दूसरी प्रतिके लिये अन्वेषण करनेकी बड़ी कपित्या सिरि विल्व । भूय विभीतकः । अवरहिमि जाईहि- जरूरत है। अपर पुष्प जाति । वणवणियहिं वनस्त्रियः । मोरर
बारहखड़ी दोहा पिच्छ छत्रं ॥॥
अपभ्रंश भाषामें बारहखडीके रूपमें प्राध्यात्मिक एवं अन्तिम सन्धि
सुभाषित दोहोकी रचना है। दोहे अच्छे एवं पठनीय जान जए जगति । मेहलियए भार्यया। गिरणासिय सिय पाते हैं। इस ग्रंथके कर्ता महाचंद कवि हैं। पाप कब और बचमी नि शितः । दुइमुणिपतिनामा मुनि बिवहालय कहाँ हुये, इसका रचनामें कोई उल्लेख नहीं मिलता समूहस्थानः । पब मेषसिंहः। हरिमांइक । महलह महत् लेकिन इतना अवश्य है कि कवि संवत् के पूर्ववर्ती पुषा । सटिसयतणु क्रोशत्रय-शरीर प्रमाणं। हरि- हैं क्योंकि बड़े मन्दिरके शास्त्रमण्डारमें उपलब्ध प्रति खिसे भोगभूमि सुरपुरिहि हो संति इन्द्र भविष्यति। इसी समयकी है। प्रति पूर्ण है एवं दोहोंकी संख्या बामें इन्दराभोजरथ नामनी । सुमणु देवः पायमोहय ३३५ है।