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दशधर्म और उनका मानव जीवनसे सम्बन्ध
(पं.वंशीवरजी म्बाकरवाचार्य) धर्मकी सामान्य परिभाषा (४) सत्य-किसीके साथ कभी अप्रामाणिक और धर्मके बारेमें यह बतलाया गया है कि वह जीवों को
अहितकर वर्ताव नहीं करना। सुखी बनानेका अचूक साधन है और यह बात ठीक भी है
(१) शौच भोगसंग्रह और भोगविलासकी बाखअतः धर्म और सुखके बीच अविनाभावी सम्बन्ध स्था
साभोंका वशवर्ती नहीं होना। पित होता है अर्थात् जो जीव धर्मात्मा होगा, यह सुखी (6) संयम - जीवन निर्वाहक परिरिक्त भोगसामग्रीअवश्य होगा और यदि कोई जीव सुखी नहीं है या का संग्रह और उपभोग नहीं करना। दुःखी तो इसका सीधा मतलब यही है कि वह धर्मारमा (७) तप-जीवन निर्वाहकी आवश्यकताओंको कम
करने के लिए भास्माकी स्वावलम्बन शक्तिको विकसित बहुतसे लोगोंको यह कहते सुना जाता है कि 'अमुक करनेका प्रयत्न करना। व्यक्तिबड़ा धर्मात्मा है फिर भी वह दुरन्वी है' इस विषय- (E) त्याग-मात्माकी स्वालम्बन शक्तिके अनुरूप में दो ही विकल्प हो सकते हैं कि यदि वह व्यक्ति वास्तव- जीवन निर्वाहकी आवश्यकतामोंको कम करके जीवन में धर्मात्मा है तो भले ही उसे हम दुखी समझ रहे हो निर्वाह के लिए उपयोगमें भाने वाली भोग सामग्रीके संग्रह परन्तु वह वास्तवमें दुखी नहीं होगा और यदि यह रोग की माता। वास्तवमें दुःखी हो रहा है तो भले ही वह अपनेको धर्मा
(6) पाकिञ्चन्य-प्रात्माकी स्वावलम्बन शक्तिका स्मा मान रहा हो या दूसरे लोग उसे धर्मात्मा समझ रहे
अधिक विकास हो जाने पर जीवन निर्वाह के लिये उपयोगहो, परन्तु वास्तवमें वह धर्मात्मा नहीं है।
में आने वाली भोग सामग्रीके संग्रहको समाप्त करके तृप इस सचाईको ध्यानमें रखकर यदि धर्मका लक्षण मात्रका भी परिग्रह अपने पास न रखते हुए नग्न दिगम्बर स्थिर किया जाय, तो यही होगा कि जीवकी उन भाव- मद्राको धारण करना और म.स्म कल्याणके गश्यसे नाओं और उन प्रवृत्तियोंका नाम धर्म है जिनसं वह सुखी केवल अयाचित भोजनके द्वारा ही शरीरकी रक्षा करनेका हो सकता है शेष जीवकी वे सब भावनायें और प्रवृत्तियां प्रयत्न करना तथा विधिपूर्वक भोजन न मिलने पर शरीरअधर्म मानी जायगी, जिनसे वह दुखी हो रहा है।
का उत्सर्ग करनेके लिये भी उत्साहपूर्वक तैयार रहना। दशधर्मो के नाम और उनके लक्षण
(१. प्राचर्य-पारमाकी पूर्ण स्वालम्बन शक्तिका
विकास हो जाने पर अपनेको पूर्ण पात्मनिर्भर बना लेना, जीवकी धार्मिक भावनाओं एवं प्रवृत्तियों को जैन
जहाँ पर भूम्ब, प्यास भादिकी बाधाका सर्वथा नाश हो संस्कृतिके अनुसार निम्नलिखित दवा भेदों में संकलित कर
जाने के कारण शरीर रक्षाके लिये भोजनादिकी पावश्यदिया गया है
कता ही नहीं रह जाती है। समा, मार्दव, मार्जव, सत्य, शौच, संयम, तप. त्याग पाकिम्चन्य और ब्रह्मचर्य ।।
चमा आदि छह धर्म और मानव जीवन ()मा- किसी भी अवस्थामें किसी भी जीवको
इन दस धर्मों में से प्रादिक नमा, माईक, भाग, कष्ट पहुँचानेकी दुर्भावना मनमें नहीं लाना।
सत्य, शौच और संयम इन धोकी मानव जीवनके (२) मार्दव-किसी भी जीवको कभी भी अपमानित लिये अनिवार्य आवश्यकता है इसका कारण यह है कि करनेको दुर्भावना मनमें नहीं लाना।
विश्व में जीवोंकी संख्या इतनी प्रचुर मात्रा है कि उनकी (३) भाव-कभी भी किसी जीवको धोखा देनेकी गणना नहीं की जा सकती है इसलिये जैन संसतिक दुर्भावना मनमें नहीं लाना ।
अनुसार जीवोंकी संख्या अनन्तानन्त बतला दी गई है।