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________________ किरण ११] मूलाचार संग्रह अन्य न होकर आचाराङ्गके रूपमें मौलिक ग्रन्थ है। [३५६ प्रशसि' मामका एक सूत्र प्रन्थ दिगम्बर सम्प्रदायमें था। कर्मनोकर्मनिर्मोतादात्मा शुखात्मतां व्रजेत् ॥ जिसका उल्लेख धवला-अयधवला टीकामें पाया जाता है। -आचारसार-११,१८६ षट् खण्डागमका 'गति-प्रागति' नामका यह अधिकार मतः जीवस्थान और उनके प्रकारोंको जाने बिना व्याख्याप्रज्ञप्तिसे निकला है+ अन्य दूसरे ग्रन्थों में भी साधु हिंस्य, हिंसक हिंसा और उसके फल या परिणामसे यह कथन उपलब्ध होता है। इस अधिकारके सम्बन्धमें बच नहीं सकता । उनका परिज्ञान ही उनकी रक्षाका कारण जो मैंने यह कवपना पहलेकी थी कि इस अधिकारका कथन है। अतएव अपनेको मासिक बनानेके लिए उनका जानप्राचारशास्त्र के साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं रखता, वह आय कोई खास सम्बन्ध नहीं रखता, वह नाप्रत्यन्त भावश्यक है। ठीक नहीं है क्योंकि साधुको आचार मार्गके साथ जीवो इस विवेचनसे स्पष्ट है कि मलाचारके उक अधिकार स्पसिके प्रकारों, उनकी अवस्थिति, योनि और भायु काय का वह सब कथन सुसम्बद्ध और सुव्यवस्थित है। प्राचार्य पादिका भले प्रकार ज्ञान न हो तो फिर उनकी संयममें महोदयने इस अधिकारमे जिन-जिन बातोके कहनेका उपठीक रूपसे प्रवृत्ति नहीं बन सकती, और जब ठीक रूपमे कम किया है उन्हीं का विवेचन इस ग्रन्थमें किया गया है। प्रवृत्ति नहीं होगी, तब वह साधु षटकायके जीवोंको रखामें इस कारण इस अधिकारका सब कथन सुव्यवस्थित और तत्पर कैसे हो सकेगा। अतः जीवहिंसाको दूर करन अथवा सुनिश्चित है और व्याख्याति जैसे सिद्धान्त ग्रंथसे मार उससे बचनेके लिए उस साधुको जीवस्थान मादिका परि रूपमें गृहीत कपनकी प्राचीनताकोही प्रकट करता है। ज्ञान होना ही चाहिए । जैसा कि प्राचार्य पूज्यपाद अपर नाम देवनन्दीकी तस्वार्थवृत्ति' के और प्राचार्य वीरनंहीके इस तरह मूलाचार बहुत प्राचीन ग्रन्थ है। वह विगनिम्न वाक्यासे प्रकट है: म्बर परम्पराका एक प्रामाणिक प्राचार अन्य है, भाचारांग रूपसे उल्लेखित है। अतः वह संग्रह मन्य न होकर मौखिक "ता एताः पंच समितयो विदितजीवस्थानादि अन्य है।इस अन्धके कर्वा भद्रबाहुके शिष्य कुम्बान्दाविधेमुनेः प्राणि-पीडापरिहाराभ्यपाया वेदितव्याः 'चाय ही हैं। भाचार्य कुन्दकुन्दके दूसरे प्रम्बोंको सामने रख कर मूलाचारका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे अनेक -तत्त्वार्थवृत्ति-अ०६, ५. . गाथामोका साम्य ज्योंके-त्या रूपमें अथवा कुलभोवेसे पाठजीवकर्मस्वरूपज्ञा विज्ञानातिशयान्वितः। भेदके साथ पाया जाता है। कथन शैली में भी बहुत कुछ माश्य है जैसा कि मैंने पहले 'क्या कुनाकुन्द ही मूखा+ 'वियाह परणातीदो गदिरागदिपिग्मदा । चारके कर्ता है' नामके लेख में प्रकट किया था। धवक्षा भाग पृ० १३० देखो, वस्वार्थ राजवार्तिक १ पृ. ३२॥ देखो अनेकान्त वर्ष किरण पृ. २१॥ अनेकान्तके ग्राहकोंसे अगली किरणके साथ १२वें वर्षके ग्राहकोंका मूल्य कमसे कम आठ पानेकी बचत होगी और अनेकान्तसमाप्त हो जाता है । आगामी वर्षसे अनेकान्तका मूल्य का प्रथमाङ्क समय पर मिल सकेगा तथा कार्यालय भी छः रुपया कर दिया गया है। अतः प्रेमी ग्राहकोंसे बी० पी० की झंझटोंसे बच जायगा। निवेदन है कि वे ६) रुपया मनीआर्डरसे भेजकर मैनेजर 'अनेकान्त' अनुगृहीत करें । मूल्य मनाआर्डरसे भेज देनेसे उन्हें १ दरियागंज, देहली
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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