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२] भनेकान्त
किरण ६ अनन्य होती है वह "नियत' अवश्य होती है इस कारण था वह कहा गया है। अब मागे उसीपर विचार अनन्य कह देनेसे निवसपना मा ही गया। इस ही तरह किया जाता है। भविशेष कहमेसे असंयुक्तपमा पा ही गया ! संयोग विशे- श्रीकानजी स्वामी महाराजका कहना है कि 'जो राष पों में ही हो सकता है सामान्यमें नहीं-सामान्य तो दो मामा वह जिनशासन है। यह आपके प्रवचनका मूल द्रव्योंका सदा ही शुदा जुदा रहता है। संयुक्तपना किसी सूत्र है जिसे प्रवचनल्लेख में अग्रस्थान दिया गया है और द्रव्य. एक विशेषका दूसरे द्रव्य विशेषसे एकत्व हो इसके द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है कि शुद्धारमा नाना है। श्रीकुन्दकुन्दने कम भंग करके अपनी (निर्माण) और जिन शासनमें अभेद है-अर्थात् शुद्ध प्रात्मा कहो
साका प्रदर्शन किया है और गाथा नं. १५ में भी शुद्ध- या जिनशासन दोनों एक ही है, नामका अन्तर है, जिनमयके पूर्णस्वरूपको सुरक्षित रखा है। विशेष और
शासन एखास्माका दूसरा नाम है। परन्तु शुवामा ती असंयुक्तका इस प्रकारका सम्बन्ध अन्य तीन विशेषणोंसे
जिनशासनका एक विषय प्रसिद्ध है वह स्वयं जिनशासन नहीं है जिस प्रकारका नियतका अनम्यसे असंयुक्तका
अथवा समम जिनशासन से हो सकता है जिनशासनके अविशेषसे है।
और भी अनेकानेक विषय है, अशुद्धामा भी उसका शुद्धात्मदर्शी भौर जिनशासन
विषय है, पुद्गल धर्म अधर्म प्रकाश और काख मामके
शेष पाँच द्रव्य भी उसके विषय है. कालचके अवसर्पिणी • प्रस्तुत गाथामें मात्माको प्रबदस्पृष्टादि रूपसे देखने पाले दास्मदीको सम्पूर्ण जिनशासनका देखनेवाला
उत्सर्पिणी भादि भेद-प्रभेदोंका तथा तीन लोककी रचना बतलाया है। इसीसे प्रथमादि चार शंकाभोंका सम्बन्ध
का विस्तृत वर्णन भी उसके अन्तर्गत है। वह सप्ततत्वों है।पहनी शंका सारे जिनशासनको देखनेके प्रकार तरीके
नवपदार्थो, चौदह गुणास्थानों, चतुर्दशादि जीवसमासों, अथवा रंग (पति)मादिसे सम्बन्ध रखती है, दूसरीमें
पट्पक्षियों, दस प्राणों, चार संज्ञानों, चौदह मार्गणामों उस इटाद्वारा देखे जानेवाले जिनशासनका रूप पूछा गया
विविध चतुर्विध्यादि उपयोगों और नयों तथा प्रमाणोंकी है, तोसरीमें उस रूपविशिष्ट शासनका कुछ महान् मा
मारी चर्चामों एवं प्ररूपणाओंको प्रात्मसात् किये अथवा भाचाया-द्वारा प्रतिपादित अथवा संसूचित जिनशासनके
अपने अंक (गोद) में लिए हुर स्थित है। साथ ही साय भेद-अभेदका प्रश्न है, और चौथीमे भेद न होनेकी मोधमार्गकी देशना करता हुमा रत्नत्रयादि धर्म-विधानों, हालवमें यह सवाल किया गया है कि तब इन प्रचार्यो- कुमागमय
कमार्गमयनों और कर्मप्रकृतियोंके कथनोपकथनसे भरपूर द्वारा प्रतिपादित एवं संसूचित जिनशासनके साथ उसकी है। सपम .
है। संक्षेपमें जिनशासन जिनवायीका रूप है. जिसके शंगति कैसे बैठती है। इनमें से पहली, तीसरी और चौथी
MAA द्वादश भंग और चौदह पूर्व अपार विस्तारको लिए हुए इन तीन शंकानोंके विषयमें प्रवचन प्राय: मौन है। उसमें प्रसिद्ध हैं। ऐसी हालत में जब कि बाल्मा जिनशासनका बार-बार इस बावको तो अनेक प्रकारसे दोहराया गया है एकमात्र विषय भी नहीं है तब उसका जिनशासनके साथ
एकत्व कैसे स्थापित किया जा सकता। उसमें हो जिनशासनको देखता-जानता है अथवा उसने उसे देख गुणस्थानों तथा मार्गणामों मादिके स्थान तक भी नहीं है जान लिया; परन्तु उन विषेषणोंके रूपमें एदामाको जैसा कि स्वयं कुन्दकुन्दाचार्यने समयसारमें प्रतिपादन देखने जानने मात्रसे सारे जिनशासनको कैसे देखता किया है। यहाँ विषयको टीकादयाम करने के लिए जानता है या देखने-जानने में समर्थ होता है अथवा इसमा और भी जान लेना चाहिए कि जिनशासनको जिनकिस प्रकारसे उसने उसे देख-आन बिया है, इसका बाबी की परह जिनप्रवचन जिनागम शास्त्र, जिनमत. की भी कोई स्पीकरण नहीं है और न भेदाभेदकी जिनदब, जिनतीर्थ, बिमधर्म और जिनोपदेश भी कहा नगरको उठाकर उसके विषयमें ही कुछ कहा गया जाता है-जैनशासन, बैनदर्शन और जैनधर्म भी उसीके है सिई दूसरी शंकाके विषयभूत निमशासनके रूप- नामान्तर है, जिनका प्रयोग भी स्वामीजीने अपने प्रवचन विषयको लेकर उसके सम्बन्धमें जो कुछ ना देखो, समयसार गाथा १३ से ५५।
शासनका रूप पूछा गया भारी चर्चामा एक
स्थित है। साथ