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________________ [किरण ६ समयसारकी श्वी गाथा और श्रीकामजी स्वामी [१३ - - 3 में जिनणसनके स्थान पर उसी तरह किया है जिस तरह पाऊदयेव जीविद जीवो एवं भवंति सव्वएह २५१ विजिनवादी' और 'भगवानकी वाणी' जैसे शब्दोंका अमरसिदेवपो सो मारेड मा व मारे। किया है। इससे जिन भगवानने अपनी दिव्य वाणी में जो एसो बंधसमासो जीवाणं शिवणयस्स २१२ कुछ कहा है और जो तमनुकूल बने हुये सूत्रों शास्त्रों में बद समिदी गुत्तीमो सीखतवं जिणवरेहि पएपतं । निबद्ध है वह सब जिनशासनका अंग है इसे खूब ध्यान में कुवंतो वि अमनो भण्णाणी मिछविट्ठी दु॥२०॥ रखना चाहिये। एवं ववहारम्स दु वत्तश्च दरिमर्ण समामेण । अब मैं श्री कन्दकन्दाचार्य प्रणीत समयपारके शब्दों सुण मिच्छाम्स बयणं परिणामध्यं तुजं होई ॥॥ में ही यह बतला देना चाहता है कि श्रीजिनभगवानने ववहारिमो पुणणो दोपियवि लिंगामि भणहमोक्सपह अपनी वाणी में उन सब विषयोंकी देशना (शास्ति) की णिच्छयणो व इच्छह मोक्खपहे सम्वलिंगाणि ॥४॥ है जिनकी उपर कुछ सूचना दी गई है। वे शब्द गाथाके इन सब उदरणोंसे तथा श्री कुन्दकुन्दाचार्यने अपने मम्बर सहित इस प्रकार हैं: प्रवचनसारमें जिनशासनके साररूपमें जिन जिन बातोंका ववहारस्म दरीसणमुवएसो वण्णदो जिणवरेहि। उल्लेख अथवा संसूचन किया है उन सबको देखने जीवा एरे सच्चे अमवसाणादो मावा ॥४६॥ से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि एकमात्र गुदाएमेव य ववहारोपपत्रसाणादिपरणभावाणं । स्मा जिन शासन नहीं है. जिनशामन मिरचय और व्यव. जीवो त्ति कदो सुत्ते....................."||5| हार दोनों नयों तथा उपनयोंके कथनको साथ साथ लिये ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वएणमादीया । हुए ज्ञान, ज्ञेय और चरितरूप सारे अर्थ समूहको उसकी गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणपस्स ॥१६॥ सब अवस्थाओं सहित अपना विषय किये हुए हैं। तह जीवे कम्माणं गोकम्माणं च पस्सिद्वगएणं। यदि शुभारमाको ही जिनशासन कहा जाय तो जीवस्स एसवण्णो जिणेहि ववहारदो उत्तो ॥ २६ ॥ शुद्धास्माके जो पाँच विशेषण-प्रबद्ध स्पृष्ट. अनन्य, नियत, एवं गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य । अविशेष और असंयुक्त-कहे जाते है वे जिनशामनको भी सम्वे बबहारस्स व णिच्छयदएहू ववदिसन्ति ॥६॥ प्राप्त होंगे। परन्तु जिनशासनको प्रबदम्पृष्टाविक रूपमें पज्जत्ताऽपजता जे सुहमा बादरा य जे चेव । कैसे कहा जा सकता है। जिनशासन जिनका शासन देहस्स जीवसरणा सुतं ववहारदो उत्ता।। ६७॥ अथवा जिनसे समुद्धत शामन होने के कारण जिसके माथ जीवस्मेवं बंबो मणिदो खलुसचदरमीहिं ।। ७० ॥ मम्बन्ध है जिस पर्थ समूहकी प्ररूपणाको बह लिये उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गियदि य । हुए है उपके साथ भी वह सम्बन्ध है, जिन शनों द्वारा मादा पुग्गलदग्वं ववहारण्यस्म वत्तव्यं ॥१७॥ अर्थ ममूहको प्ररूपणा की जाती है उनके साथ भी उसका जावे कम्मं बद्धं पुट्ट चेदि ववहारणयमणिदं। सम्बन्ध है। इस तरह शब्द समय, अर्थसमय और ज्ञान सुदणयस दु जीवे अपद्धपुटुंहवह जीवो ..॥ समय तीनोंके साथ जब जिनशासनका सम्बन्ध तब उसे सम्मत्तपडिमिन मिच्छतं जिथपरेहि परिहिये। अपदस्पृष्ट कैसे कहा जा सकता है। नहीं कहा जा तस्सोदयेण ज बो मिच्छादिट्टि ति णायन्वो ॥११॥ सकता । और कौके बन्धनादि की तं' उनके साथ कोई यास्स पडिणिबद्ध भयणायं जिणवरेहिं परिकहिय। करपना ही नहीं बनती जिससे उस दृष्टिके द्वारा उसे अबद्धतस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि पायग्वो ॥१२॥ स्पष्ट कहा जाय । 'अनन्य' विशेषण भी उसके साथ वाटत चास्ति पडिणिबद्धरणाणं जिणवरेहि परिकड़िय। नहीं होता क्योंकि वह शुद्वात्माको बोपकर शवामानों सस्सोदएण जीवो अपणाणी होदि णायवो ॥१३॥ तथा अनारमाओंको भी अपना विषय किये हुए है अथवा तेसिं हेऊ मणिदा मज्भवसाणाणि सम्बदरसीहिं। यो कहिए कि वह अन्यशासनों मिथ्यादर्शनों को भी अपने में मिण भयवाणं भविश्यमावो व जोगोथ ॥१७॥ स्थान दिये हुए हैं। श्री सिरसेनाचार्षक शम्दोंमें तोह उदविवागो विविहो कम्माणं वरिणमोजिणवरेहि। जिन प्रवचन 'मिथ्यादर्शनीका समूबमब, इतने पर भी पारखयेव मरण जीवाणं जिणवरेहि परणसं ॥२४८।। भगवत्परको प्राप्त है, अमृतका सार और विलाधि
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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