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अनेकान्त
[किरण
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गम्य है. जैसाकि सम्मतिसूत्रके अन्त में उसकी मंगलकामना तीसरे, विविध नयभंगोंको पाश्रय देने और स्यावादके लिये प्रयुक्त किये गये निम्न वाक्यसे प्रकट है- न्यायके अपनाने के कारण जिनशासन सर्वथा एक रूपमें भई मिच्छादसण समूहमइयस्स अमियसारस्स।
स्थिर नहीं रहवा-वह एक ही बातको कहीं कभी निश्चय जियावयणस्स भवनो संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥३०॥
भयकी रष्टिसे कथन करता है तो उसीको अन्यत्र व्यवहार
नयकी दृष्टिसे कथन करने में प्रवृत्त होता है और एक ही इस तरह जिनशासनका 'अनन्य' विशेषण नहीं बनता । 'निपत' विशेषण भी उसके साथ घटित नहीं होता,
विषयको कहीं गौण रखता है तो दूसरी जगह उसीको
मुख्य बमाकर भागे ले आता है। एक ही वस्तु जो एक क्योंकि प्रथम तो सब जिनों-तीर्थंकरोंका शासन फोनोग्राफ
नयदृष्टिसे विधिरूप है वही उसमें दूसरी नयदृष्टिसे निषेध के रिकार्डकी तरह एक ही अथवा एक ही प्रकारका नहीं
रूप भी है, इसी तरह जो नित्यरूप है वही अंनत्यरूप है अर्थात् ऐसा नहीं कि जो बचनवर्गणा एक तीर्थकरके
भी है और जो एक रूप है वही अनेकरूप भी हैं इसी असे खिरी वही जंची-तुली दूसरे तीर्थकरके मुंहसे निकली * हो-पक्कि अपने अपने समयकी परिस्थिति मावश्यकता
सापेक्ष नयवादमें उसकी समीचीनता संनिहित और सुर
पित रहती हैं। क्योंकि वस्तुतव अनेकान्तात्मक हैं। इसीसे और प्रतिपायोंके अनुरोधवश कथनशेतीको विमित्रताके
उसका व्यवहारनय सर्वथा अभूतार्थ या असत्यार्थ नहीं साथ रहा कुब कुछ दूसरे भेदको भी वह लिये हुए रहा है
होता यदि व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्य होता तो श्री जिसका एक उदा. रण मूलाचारको निम्न गापासे जाना
जिनेन्द्रदेव उसे अपनाकर उसके द्वारा मिथ्या उपदेश क्यों जावा -.
देते? जिस व्यवहारनयके उपदेश अथवा वक्तव्यसे सारे वावीस तित्थयरा सामाइयं संजम उवदिसति ।
जैनशास्त्र अथवा जिनागमके अंग भरे पड़े हैं। वह तो दोवद्यावणिय पुण भयव उसहो य वीरो य 11७-३२॥ निश्वनयकी दृष्टि में अभूतार्थ है, ज कि व्यवहारनयको
बतलाया है कि 'मजिससे लेकर पार्श्वनाथ दृष्टिमें वह शुबनय या निश्चय भी अभूतार्थ-असत्यार्थ पताबाईस तीर्थकरोंने 'सामायिक' समयका और ऋषभ- ६ जोकि वर्तमानमें अनेक प्रकारके सुख कर्म बन्धनोंसे देव तथा वीर भगवानने 'छेदोपस्थापना' संयमका उपदेश पंधे हुए, नाना प्रकारकी परतन्त्रताओं को धारण किये हुये, दिया है। अगली गाथाओं में उपदेशकी इस विभिन्नताके भवभ्रमण करते और दुरव उठाते हुए संपारी जीवात्माओंको कारवको तात्कालिक परिस्थितियोंका कुछ उल्लेख करते सर्वथा कर्मबन्धनसे रहित प्रबदष्टाहिलेपमें से
विमित्रतामों करता है और उन्हें पूर्णज्ञान तथा प्रानन्दमय बतलाता है, का सकारण सूचन किया गया है। इस विषयका विशेष जो कि प्रत्यक्ष के विरुद्ध ही नहीं किन्त भागमभीवित परिचय प्राप्त करनेके लिये 'जैनतीर्थंकरोंका शासनभेद'
पागममें चास्माके साथ कर्मबन्धनका बहुत विस्तारके साथ मामक वह लेख देखना चाहिए जो प्रथमतः अगस्त सन्
वर्णन है। जिसका कुछ सूचन कुन्दकुन्दके समयसारके के 'जैन हितैषी' पत्रमें और बादको 'जेनाचार्योंका
प्रन्यों में भी पाया जाता है। यहाँ प्रसंगवश इतना और शासन नामक ग्रन्थके परिशिष्टमें 'कख' में परिवर्ध- प्रकट किया जाता है कि शुद्ध या निश्चयनयको द्रव्यार्थिक मादिके साथ प्रकाशित हुआ है और जिसमे दिगम्बर तथा
और व्यवहारनयको पर्यार्षिकनय कहते है। ये दोनों
मूखमय पृथक रह कर एक दूसरेके वक्तव्यको किस श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंके अनेक प्रमाणोंका सकलन है
रप्टिसे देखते हैं और उसष्टिसे देखते हुए सम्यग्दृधि है या साथ ही, यह भी प्रदर्शित किया गया है कि उन भेदोंके
मिथ्यरष्टि, इसका अच्छा विवेचन श्री सिद्धसेनाचार्थने कारणा मुनियोंके मूलगुणोंमें भी अन्तर रहा है।
अपने सन्मतिसूत्रकी निम्न गाथाचा में किया हैदूसरे जिनवाणीके जो द्वादश अंग है उनमें बता करण, अनुत्तरोपपादिकदय, प्रश्न व्याकरण और रष्टिवाद
दवविय वत्तन्वं भवत्थु णियमेण पज्जवण्यस्स। मे कुन अंग ऐसे है जो सब तीर्थंकरोंकी बाथीमें एक
वह पज्जवत्थ अपत्थुमेव दम्बटियणयस्स ॥१०॥ ही रूपको सिबे हुए नहीं हो सकते।
सज्जति वितिय भाषा पन्जवणयस्स ।
समयपधारमा