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किरण ६] समयासारकी १ वी गाथा और बीकानजोस्वामी
[११ 'अपवेससंतमझ' । इस संस्चित तथा दूसरे प्रचलित पद- गाथाके अर्थमें अतिरिक्त विशेषणमें परस्पर बहुत ही थोपा सिर्फ एक अवरका अन्तर है
प्रस्तुत गाथाका अर्थ करते हुए उसमें चाल्माके खिबे इसमें ''भर है तो उसमें दे', शेष सब ज्योंका त्यों है।
पूर्व गाथा-प्रयुक्त नियत' और 'मसंयुक्त विशेषणोंको लेखकोंकी कृपासे 'बे का देखिखा जाना अथवा पन्नोंके
उपलक्षण ग्रहण किया जाता है, जो कि इस गापामें चिपक जाने भादिके कारण 'वे' का कुछ प्रश बकर
प्रयुक्त नहीं हुए हैं। इन्हीं प्रयुक्त एवं अतिरिक विशेउसका दे' बन जाना तथा पड़ा जाना बहुत कुछ स्वाभा.
पोंके ग्रहणसे शंका नं.८ का सम्बन्ध है और उसमें यह विक है। इस संसूचित पदका अर्थ 'अनादिमध्या-त' होता
जिज्ञासा प्रकट की गई है कि इन विशेषणोंका ग्रहण क्या है और यह विशेषण शुदामाके लिये मक स्थानों पर
मूलकारके भाशयामुसार है। यदि है तो फिर वीं प्रयुक्त हुचा है, जिसके कुछ उदाहरण शंका नोट किये
गाथामें प्रयुक्त हुए पाँच विशेषणोंको इस गाथामें क्रमभंग गये हैं और फिर पूछा गया है कि यदि पदका यह सुझाव
करके क्यों रखा गया है जबकिवी गाथाके पूर्वार्धको ठीक नहीं है वो क्यों? ऐसी स्थितिमें चलित पद और
ज्योंका स्यों रख देने पर भी काम चल सकता था अर्थात् तद्विषयक यह सुझाव विचारणीय जरूर हो जाता है। इस शेष दो विशेषणों 'भविशेष' और 'मसंयुक्त' को उपलक्षण तरहतीन शंकाएं प्रचलित पदके रूपादि-विषयसे सम्बन्ध द्वारा प्रहण किया जा सकता था और यदि नहीं है तो रखती हैं, जिन्हें प्रवचनलेखमें विचारके लिये छुमा तक भी फिर अर्थ में इनका ग्रहण करना ही प्रयुक्त है। इस शंकानहीं गया-समाधानकी तो बात ही दूर है यह उस को भी स्वामीजीने अपने प्रवचन में शुमा तक नहीं है, और लेखको पढ़कर पाठक स्वयं जान सकते हैं। हो सकता है इसलिए इसके विषयमें भी वही बात कही जा सकती है, कि स्वामीजीके पास इन शंकामोंके समाधान-विषयमें कुछ जो पिछली तीन शंका विषयमें कही गई है अर्थात् कहनेको न हो और इसीसे उन्होंने अपने उस वाक्य इस शंकाके विषयमें भी उन्हें कुछ कहने के लिए नहीं होगा ('जो कुछ कहना होता हैं उसे प्रवचनमें ही कह देता और इसीसे कुछ नहीं कहा गया । हूँ')के अनुसार कुछ न कहा हो । कुछ भी हो, वहाँ पर एक बात और प्रकट कर देनेकी है और वह पर इससे समयसारके अध्ययनकी गहराईको ठेप जरूर यह
किसाइमा मके एक पत्र रोहतक (पंजाब) पहुँचती है।
से डाक-द्वारा प्राप्त हुआ था जिस पर स्थान के साथ पत्र यहाँ पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता लिखने की तारीख तो है परन्तु बाहर भीतर कहींसे भी कि गत वर्ष सागरमें वर्णीजयन्तीके अवसर पर और पत्र भेजने वाले सजनका कोई नाम उपलब्ध नहीं होता। इस वर्ष खास इन्दोरमें वात्राके अवसर पर मेरी इस पद संभवता वे सज्जन बाबू नानकचन्दजी एडवोकेट जान के रूपादि-विषयमें पं.वंशीधरजी न्यायसंकारसे भी' पड़ते है, जो कि समयसारकी स्वाध्यायके प्रेमी हैं और जो कि जैनसिद्धान्तके एक बहुत बड़े ज्ञाता है, चर्चा उस प्रेमी होनेके नाते ही पत्र में कुछ लिखनेके प्रयासका भाई थी, उन्होंने उक्त सुझावको ठीक बतलाते हुए कहा उल्लेख भी किया जाता है। इस पत्र पाठवीं शंकाके कि हम पहलेसे इस पदको 'अप्पाणं' पदका विशेषण विषयमें जो लिखा है उसे उपयोगी समझ कर यहाँ मानते भाए हैं, और तब इसके 'भपदेससुत्तमज्म' (भप्र- उधत किया जाता हैदेशसूत्रमध्यं ) रूपको लेकर एक दूसरे ही ढंगसे इसके "गाथा मं० 1 के पहले चरण में जो कम भंग है वह 'अनादिमध्यान्त' अर्थकी कल्पना करते थे (जो कि एक बहत ही रहस्यमय है। यदि गाया मं. १५ में गाथा नं. विसष्ट कल्पना थी। अब इसके प्रस्गवित रूपसे अर्थ बहुत का पूर्वाध दे दिया जाता तो दो विशेष अविशेष ही स्पार तथा सरख (सहज बोधगम्य) हो गया है। साथ ही और 'मसंकट जाते। ये विशेष किसी दूसरे विशे. यह भी बताया कि श्री जयसेनजीने इस पदका जो पबके उपलबमहीं हो सकते। क्रमभंग करने पर दो अर्थ किया और उसके द्वारा इसे 'विखसासा' पदका विशेषण 'मिवन' और 'संयुक' रहे हैं सो इनमेंसे विशेषन बनाया है वह डीक या संगत नहीं है। 'नियत' विशेषण तो 'अनन्य उपखावहै। जो वस्तु