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________________ १०] भनेकान्त [किरण ६ - - - अथवा उसके बाद दिया गया कोई दूसरा ही प्रवचन है। किया गया है। भाया है सहृदय विदरजन दोनों लेखों पर यदि यह प्रवचन वही है जो १२ फरवरीको दिया गया था, गंभीरताके साथ विचार करनेकी कृपा करेंगे और जहाँ जिसकी सर्वाधिक संभावना है, तो कहना होगा कि वह कहीं मेरी भूत होगी उसे प्रेमके साथ मुझे सुझानेका भी उस प्रवचनका बहुत ऊंचसंस्कारित रूप है। संस्कारका कष्ट उठाएंगे, जिससे मैं उसको सुधारनेके लिये समर्थ कार्य स्वयं स्वामीजीके द्वारा हुआ है या उनके किसी हो सकू। शिष्य अथवा प्रधान शिष्य श्रीरामजी मानिकचन्दजी दोशी गाथाके एक पदका ठीक रूप, अर्थ और संबंध MT वैकोलके द्वारा, जोकि मास्मधर्मके सम्पादक भी है; परन्तु बह कार्य चाहे किसीके भी द्वारा सम्पन्न क्यों न हुआ हो, उक्त गापाका एक पद 'पदेससंतमझ' इस रूप में इतना तो सुनिश्चित है कि यह बेखबद्ध हुआ प्रवचन प्रचलित है। प्रवचनलेख में गाथाको संस्कृतानुवादके रूपस्वामीजीको दिखला-सुनाकर और उनकी अनुमति प्राप्त में प्रस्तुत करते हुए इस पदका संस्कृत रूप'अपदेशसान्तकरके ही छापा गया है और इसलिए इसकी सारी जिम्मे मध्यं दिया है, जिससे यह जाना जाता है कि श्रीकानजी दारी उन्हींके उपर है। अस्तु । स्वामीको पदका यह प्रचलित रूप ही इष्ट तथा मान्य है, जयसेनाचार्यने संत (सान्त) के स्थान पर जो 'सुस' (स्त्र) इस लेखबद्ध संस्कारित प्रवचनसे भी मेरी शंकामों शब्द रक्खा है वह पापको स्वीकार नहीं है। प्रस्तु, इस का कोई समाधान नहीं होता। भाठमेंसे सात शंकामोंको पदके रूप अर्थ और सम्बन्धके विषय में जो विवाद है उसे तो इसमें प्रायः क्षुधा तक भी नहीं गया है सिर्फ दूसरी शंका नं.१ में निबद किया गया है। बठी शंका इस पदके शंकाका अपरा-ऊपरी स्पर्श करते हुए जिनशासनके रूप उस अर्थसे सम्बन्ध रखती है जिसे जयसेनाचार्यने 'भपदेसविषयमें जो कुछ कहा गया है वह बड़ा ही विचित्र तया सुत्तमम्' पद मानकर अपनी टीकामें प्रस्तुत किया। अविचारितरम्य जान पड़ता है। सारा प्रवचन माध्यास्मिक और जो इस प्रकार हैएकान्तकी भोर बना दुभा है, प्रायः एकान्त मिथ्यात्वको पुष्ट करता है और जिनशासनके स्वरूप-विषयमें लोगोंको "अपदेमसुत्तममं अपदेशसूत्रमध्यं, अपदिश्यतेऽर्थो येन गुमराह करने वाला है। इसके सिवा जिनशासनके कुछ स भवस्यपदेशशब्दे द्रव्यश्चतंमिति यावत् सूत्रपरिच्छित्तिमहान् स्तंभोंको भी इसमें "लौकिकजन" तथा अन्यमती" रूपं भावतं ज्ञानसमय इति, तेन शम्दसमबेन बाध्य जैसे शब्दोंसे याद किया है और प्रकारान्तरसे यहाँ तक साल .. ज्ञानसमयेन परिच्छेदमपदेशसूत्रमय भएयते इति ।' कह डाला है कि उन्होंने जिनशासनको ठीक समझा नहीं; इसमें 'अपदेस' का अर्थ जो ग्यश्रत' और 'सुतं' यह सब सत्य जान पाता। ऐसी स्थितिमें समयाभाव- का अर्थ 'भावभुत' किया गया है वह शब्द-मर्थकी दृष्टिके होते हुए भी मेरे लिए यह आवश्यक हो गया है कि से एक खटकने वाली वस्तु है, जिसकी वह खटकन ओर मैं इस प्रवचनलेख पर अपने विचार व्यक्त करूं, जिससे भी बढ़ जाती है जब यह देखने में माता है कि 'मध्य' सर्वसाधारण पर यह स्पष्ट हो जाय कि प्रस्तुत प्रवचन शब्दका कोई अर्थ नहीं किया गया-उसे वैसे ही अर्थ समयसारकी १५ वी गाथा पर की जाने वाली उक्त समुच्चयके साथमें लपेट दिया गया है। संकायों का समाधान करने में कहाँ तक समर्थ है और जिन- कानजी स्वामीने यद्यपि 'सुत्त' शब्दकी जगह 'संत शासनका जो रूप इसमें निर्धारित किया गया हैयह (सान्त) शब्द स्वीकार किया है फिर भी इस पदका अर्थ कितना संगत अथवा सारवान् है। उसके लिये प्रस्तुत वही द्रव्यश्रत-भाश्रतके रूपमें अपनाया है जिसे जयसेनालेखका यह सब प्रयत्न है और इसोसे कानजीस्वामीका चायने प्रस्तुत किया है, चुनांचे भापके यहसि समयसारका उक्त प्रवचनबेख भी अनेकान्तकी इस किरण मन्यत्र जो गुजराती अनुवाद प्रकाशित हुचा है उसमें 'सान्त' का ज्योंकायों उद्धत किया जाता है जिससे सब सामग्री प्रय'ज्ञानरूपीभावत' दिया है, जो और भी खटकने विचार के लिये पाठकोंके सामने रहे और इतना तो प्रवचन- वाली वस्तु बन गया है। ख पर र खते ही सहज अनुभव में पा जाए कि सातवीं शंका इस प्रबत पदके स्थान पर जो दूसरा उसमें उक्त मा शंकायोंमेंसे किनके समाधानकाच्या प्रयत्न पद सुझाया गया है उससे सम्बन्ध रखती है। वह पदई
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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