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________________ समयसारकी १.वी गाथा और श्रीकानजी स्वामी [१७८ - होनेसे पहले ही सभामवनमें यह सूचना मिली कि अभीष्ट व्याख्यात्मक निबन्ध बिखने के लिए अपनी भामा'भाजका प्रवचन समयसारकी की गाथा पर मुख्तार दगी १५ जून तक बाहिर करेंगे तो उस विषय पुरस्कारकी साहबकी शंकामों को लेकर उनके समाधान रूपम होगा।' पुनरावृत्ति करदी जाएगी अर्थात् निबन्धके लिये बथोचित और इसलिये मैने उस प्रवचनको बड़ी उत्सुकता के साथ समय निर्धारित करके पत्रोंमें उसके पुरस्कारकी पमः गौरसे सुना जो घंटा भरसे कुछ अपर समय तक होता घोषणा निकाल दी जाएगी। इतने पर भी किसी विद्वानने रहा है। सुनने पर मुझे तथा मेरे साथियोंको ऐसा जगा उक्त गाथाकी व्याख्या लिखनेके लिए अपनी मामादगी कि इसमें मेरी शंकाओंका तो स्पर्श भी नहीं किया गया जाहिर नहीं की और न सोनगढ़से ही कोई पाबाज पाई। है-यों ही इधर-उधरकी बहुवसी बातें गाथा तथा गाथे- और इसलिये मुझे प्रवशिष्ट विषयोंके पुरस्कारोंकी योजना तर-सम्बन्धी कही गई है। चुनाव सभाको समाप्तिके को रह करके दूसरे नये पुरस्कारोंकी ही पोजना करनी बाद मैने उसकी स्पष्ट विज्ञप्ति भी कर दी और कह दिया पड़ी, जो इसी वर्ष भनेकान्त किरण.२ में प्रकाशित कि भाजके प्रवचनसे मेरी शंकामोंका तो कोई समाधान हो चुकी है। और इस तरह उक्त गायाकी चर्चाको समास मा नहीं। इसके बाद एक दिन मैंने अलहदगीमें श्री कर देना पड़ा था। कानजीस्वामीसे कहा कि भाप मेरी शंकाओंका समाधान हालमें कानजीस्वामीके 'पारमधर्म पत्रका नया सिखा दीजिए-और नहीं तो अपने किसी शिष्यको ही भारिवनका अंक नं..देवयोगसे . मेरे हस्तगत इमा, बोलकर लिखा दीजिए। इसके उत्तरमें स्वामीजीने कहा जिसमें 'जिनशासन' शीर्षकके साथ कानजोस्वामीका एक कि 'न तो मैं स्वयं लिखता हूँ और न किसीको बोलकर प्रवचन दिया हुआ है और उसके अन्त में लिखा है-"मी लिखाता हूँ, जो कुछ कहना होता है उसे प्रवचनमें ही कह समयसार गाथा १५पर पूज्य स्वामीजीके प्रवचनसे इस देता है। इस उत्तरसे मुझे बहुत बड़ी निराशा हुई, और प्रवचनकी कोई तिथि-तारीख साथ सूचित नहीं की गई, इसीलिये यात्रासे वापिस पानेके बाद, भनेकान्तकी १२वीं जिससे यह मालूम होता कि क्या यह प्रवचन वही जो किरयके सम्पादकीयमें, 'समयसारका अध्ययन और अपने खोगोंके सामने ता. फरवरीको दिया गया था प्रवचन' नामसे मुझे एक नोट लिखने के लिये बाध्य होना देवयोगसे लिखनेका अभिप्राय इतना ही है कि पड़ा, जो इस विषयके अपने पूर्व तथा वर्तमान अनुभवों 'मात्मधर्म अपने पास या वीरसेवामन्दिर में माता नहीं को लेकर लिखा गया है और जिसके अन्तमें यह भी है, पहले वह 'अनेकान्त' के परिवर्तनमें पाता था, अबसे प्रकट किया गया है कि न्यायचार्य पं. महेन्द्रकुमारजी जैसोंके कुछ बेख स्वामीजी'निःसन्देह समयसार-जैसा प्रन्थ बहुत गहरे अध्ययन के मातम्योंके विरुव अनेकान्तमें प्रकाशित हुए तबसे तथा मननकी अपेक्षा रखता है और तभी भारम-विकास प्रात्मधर्म भनेकाम्तसे रुष्ट हो गया और उसने दर्शन देना जैसे यथेष्ट फलको फल सकता है। हर एकका वह विषय ही बन्द कर दिया। पीछे किसी सज्जनने एक वर्षके लिये नहीं है। गहरे अध्ययन तथा मननके अभावमें कोरी उसे अपनी बोरसे बीरसेवामन्दिर में भिजवाया था, उसकी भावुकतामें बहने वालोंकी गति बहुधा 'नइधरके रहे म अवधि समाप्त होते ही पाकिर उसका दर्शन देना बन्द उधरके रहे' वाली कहावतका चरितार्थ करती है अथवा ३ है। जबकि अपना 'भनेकान्त' पत्र कई वर्षसे बराबर उस एकान्तकी भोर ढल जाते हैं जिसे माध्यात्मिक एकांत जिस पाण्यात्मिक एकात कानजीस्वामीको सेवामें भेंटस्वरूप जा रहा है और सकहते है और जो मिथ्यात्वमें परिगणित किया गया है। लिए यह अंक अपने पास सोनगढ़के पास्मधर्म-माफिससे इस विषयकी विशेष चर्चाको फिर किसी समय उपस्थित भेजा नहीं गया है जबकि १५वीं गायाका विषय होनेकिया जायगा।' से भेजा जाना चाहिए था कि दिल्ली में एक सज्जनके साथ ही रक किरणके उसी सम्पादकीय में एक नोट- यहाँसे इचक्राकिया देखनेको मिखा गया है यदि यह अंक द्वारा, 'पुरस्कारोंकी योजनाका नवोजा' व्यक्त करते हुए, न मिलता तो इस लेखके बिये जानेका अवसर ही प्राय यह इच्छा भी व्यक्त कर दी गई थी कि यदि कमसे दो न होता । इस अंकका मिलना ही प्रस्तुत लेख लिखने में विद्वान अब भी समयसारकी १५वी गाथाके सम्बन्ध में प्रधान निमित्त कारण।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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