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भनेकान्त
किरण ६
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(२) इस गाथामें 'पदेससंतमज्म' नामक जो पर पाया पूर्वाधको ज्योंका त्यों रख देने पर भी शेष दो विशे
जाता है और जिसे कुछ विद्वान् 'अपदेससुत्तमज्झ' पणोंको उपखपणके द्वारा प्रहण किया जा सकता रूपसे भी उस्लेखित करते हैं.जसे जिणशास पदका था। परन्तु ऐसा नहीं किया गया; सब क्या इसमें विशेष बतलाया जाता है और उससे द्रष्यत तया कोई रहस्य है, जिसके स्पष्ट हुनेकी जरूरत है। भावनवका भी अर्थ लगाया जाता है, यह सब कहाँ अथवा इस गाथाके अर्थ में उन दो विशेषणोंको ग्रहण तक संगत है अथवा पदका ठीक रूप, अर्थ और
काना युक्त नहीं है। सम्बन्ध क्या होना चाहिए?
विज्ञप्लिके अनुसार किसी भी बिहानने उकगाथाकी () श्रीमतचन्द्राचार्य इस पदके अर्थ विषयमें मौन है ज्याझ्याके रूपमें अपना निबन्ध भेजनेकी कृपा नहीं की,
और जयसेनाचार्यने जो अर्थ किया है वह पदमें यह खेदका विषय है। हालांकि विज्ञप्तिमें यह भी निवेदन प्रयुक हुए शब्दोंको देखते हुए कब खटकता हुआ किया गया था कि 'जो सज्जन पुरस्कार लेनेकी स्थिति में भान पड़ता है, यह क्या डीकं है अथवा उस अर्थ में न हों अथवा उसे लेना चाहेंगे उनके प्रति दूसरे प्रकारसे खटकने जैसी कोई बात नहीं है।
सम्मान व्यक्त किया जायगा। उन्हें अपने अपने इष्ट एवं . (6) एक सुझाव यह भी है कि यह पद 'अपवेससंत- अधिकृत विषय पर खोकहितकी रष्टिसे बेख लिखनेका
मम' (अप्रवेशसान्तमध्यं है, जिसका अर्थ अनादि- प्रयत्न जरूर करना चाहिये। इस निवेदनका प्रधान संकेत मध्यान्त होता है और यह 'अप्पाणं (मात्मानं, उन त्यागी महानुभावों-रुलकों, ऐलकों, मुनियों, पदका विशेषण है, न कि "जिणसासणं' पदका। पारमार्थिजनों तथा निःस्वार्थ-सेवापरायोंकी भोर था जो शुद्धामाके लिये स्वामी समन्तभदने रहनकरण्ड (0) अध्यात्मविषयके रसिक हैं और सदा समयसारके अनुमें और सिद्धसेनाचार्यने स्वयम्भूस्तुति (प्रथमद्वात्रिं- चिन्तन एवं पठन पाठनमें लगे रहते हैं। परन्तु किसी भी शिका 'अनादिमध्यान्त' पदका प्रयोग किया महानभावको उक्त निवेदनसे कोई प्रेरणा नहीं मिली है। समयसारके एक कलशमें अमृतचन्द्राचार्यने भी अथवा मिनी हो तो उनकी जोकहितकी दृष्टि इस विषय में 'मध्यान्तविभागमुक्त' जैसे शब्दों द्वारा इसी बातका चरितार्य नहीं हो सकी और इस तरह प्रायः छह महीनेका उल्लेख किया है। इन सब बातोंको भी ध्यानमें समय यों ही बीत गया। इसे मेरा तथा समाजका एक लेना चाहिये और तब यह निर्णय करना चाहिये कि प्रकारसे दुर्भाग्य ही समझना चाहिये।
या उक्त सुझाव ठीक है। यदि ठीक नहीं हैं तो गत माघ मास (जनवरी सन् १९५३ में मेरा विचार क्यों।
वीरसेवामन्दिरके विद्वानों सहित श्री गोम्मटेश्वर बाहु(८) १४वी गाथामें शुद्धनयके विषयभूत प्रात्माके लिए बनीजीके मस्तकाभिषेकके अवसर पर दक्षिणकी यात्राका
पाँच विशेषणोंका प्रयोग किया गया है, जिनमेंसे हया और उसके प्रोग्राममें खासतौरसे जाते वक्त सोनगढ़कुल तीन विशेषणोंका ही प्रयोग १५ वी गाथामें का नाम रक्खा गया और वहाँ कई दिन ठहरनेका विचार हमा है, जिसका अर्थ करते हुए शेष दो विशेषणों- स्थिर किया गया क्योंकि सोनगढ़ श्रीकानजीस्वामीमहा'नियत' और 'असंयुक्त'को भी उपलक्षणके रूपमें राजकी कृपासे प्राध्यात्मिक प्रवृत्तियोंका गढ़ बना हुमा ग्रहण किया जाता है, तब यह प्रश्न पैदा होता है और समयसारके अध्ययन-अध्यापनका विद्यापीठ सममा कि यदि मूलकारका ऐसा ही प्राशय था तो फिर जाता है। वहाँ स्वामीजीसे मिलने तथा अनेक विषयोंके इस१२ वी गावामें उन विशेषणोंको क भंग करके शंका-समाधानकी इच्छा बहुत दिनोंसे चली जाती थी,
रखनेको क्या करत थी। वी गाथा *के जिनमें समयसारका उक्त विषय भी था, और इसीलिये ..क वी गाथा इस प्रकार है-
कई दिन ठहरनेका विचार किया गया था। जो पस्सदि अप्पा अवरपुटुमणण्णय लिबदं। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई जबकि ११ फरीको पुण्ड अविसे संमसंजु मुरणयं वियाणीहि
स्वामीजीका अपने लोगोंके सम्मुल प्रथम प्रवचन प्रारम्भ