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________________ करण ] राष्ट्रकूटकालमें जैन धर्म /२८५ उपयु लिखित महाराज, सामंतराजा पदाधिकारी तो था और एक सप्ताह तक चलता था । श्वेताम्बरोंमें वह ऐसे हैं जो अपने दान पवादिकके कारण राष्ट्रक्ट युगमें शुक्ला ८मी से प्रारम्भ होता है। शब अवश्पर्वत पर यह जैन धर्म प्रसारकके रूपसे ज्ञात है, किन्तु शीघ्र ही ज्ञान पर्व अब भी बड़े समारोहसे मनाया जाता है, क्योंकि होगा कि इनके अतिरिक्त अन्य भी अनेक जन राजा इस उनकी मान्यतानुसार श्रीऋषभदेवके गणधर पुण्डरीकने युग में हुए थे। इस युगने जैन ग्रंथकार तथा उसके उप- पंच करोग अनुवायीयोंके साथ इह तिथिको हो मुक्ति देशकोंकी एक प्रखण्ड सुन्दर मालाही उत्पा की थी। पाथीर थी। यह दोनों पर्व पशवीसे दषियमें सुप्रचलित यता इन सबको राज्याश्रय प्राप्त था फबताइनकी साहि- थे। फलतः ये राष्ट्रकूट युगमें भी अवश्य बड़े उत्साहसे त्यिक एवं धर्म प्रचारकी प्रवृत्तियोंसे समस्त जनपद पर मनाये जाते होंगे। क्योंकि जैन शास्त्र इनकी विधि करता गम्भीर प्रभाव पड़ा था। बहुत सम्भव है इस युगमें रह है और ये माज भी मनाये जाते हैं। जनपद की समस्त जनसंख्याका एक तृतीयांश भगवान महा- राष्ट्रकूट युगके मंदिर तो बहुत कुछ पोंमें वैदिक वीरको दिव्यध्वनि (सिद्धांतोंका अनुयायी रहा हो। मन- मंदिर कलाको प्रतिलिपि थे। भगवान महावीरकी पूजापहनीके उदारण के प्राचारपर रसीद उद-दीनने लिखा है विधि सी ही व्यय-साध्य तथा विबासमय हो गयी थी कि कोंकण तथा थानाके निवासी की व्यारवीं शतीके जैसी कि विष्णु तथा शिवकी थी। प्रारम्भन समनी (श्रमण अर्थात बौद्ध धर्म अनुयायी थे। शिलालेखों में भगवान महावीरके 'अंग मोग तथा रंग अल-इदसीने नहरवासा (भाहल पहन राजाको भोग' के लिये दान देनेके उक्लेख मिलते हैं जैसा कि बौद्ध धर्मावलम्बी लिखा है। इतिहासका प्रत्येक विद्यार्थी वेदिक देवताओंके लिये चखन था । यह सब भगवान जानता कि जिस राजाका उसने उक्लेख किया है वह महावीर द्वारा उपदिष्ट सर्वांग माकिंचम्य धर्मकी व्याख्या जैन था, बौद्ध नहीं । अत एव स्पष्ट है कि मुसलमान नहाया। बहुधा जैनोंको बौद्ध समझ लेते थे। फलतः उपयु लिखित जैन मठोंमें भोजन तथा भौषधियोंकी पूरी व्यवस्था रशीद-उद-दीनका वक्तव्य दक्षिण कोंकण तथा थाना रहती थी तथा धर्म शास्त्रके शिषबकी भी पर्याप्त व्य. भागोंमें दशमी तथा ग्यारहवीं शतीके जैन धर्म-प्रसारका वस्था थी। सूचक है बौद्ध धर्मका नहीं । राष्ट्रकूट कालकी ममासके अमोघवर्ष प्रथमका कोन्नूर शिलालेख तथा कार्कके उपरान्तही लिंगायत सम्प्रदायके उदयके कारण जैनधर्मको सूरत ताम्रपत्र जैन धर्मायतनोंके लिये ही दिये गये थे। अपना बहुत कुछ प्रभाव खोना पड़ा था क्योंकि किसी हद किन्तु दोनों लेखोंमें दानका उद्देश्य बलिदान, वैश्वदेव तक यह सम्प्रदाय जैन धर्मको मिटाकर ही बढ़ाया। तथा अग्निहोत्र दिये हैं। ये सबके सब प्रधान वैदिक जैन संघ जोवन संस्कार है। पापाततः इनको करने के लिए जैन मंदिरोंको दिये गये दान को देखकर कोई भी व्यक्ति भारचर्य में पर इस कानके अभिलेखोंसे प्राप्त सूचनाके आधार पर उस जाता है। सम्भव है कि राष्ट्रकूट युगमें जैन धर्म क्या समयके जेन मठोंके भीतरी जीवनकी एक झांकी मिलती वैदिकधर्मके बीच प्राजकी अपेक्षा अधिकतर समता रही है। प्रारम्भिक कदम्बर वंशके अभिलेखोंसे पता लगता है हो। अथवा राज्यके कार्यालयकी असावधानीके कारण कि वर्षा ऋतु में चतुर्मास अनेक जैन साधु एक स्थान पर दानके उक्त हेतु शिलालेखों में जीव दिये गये है। कोम्नर रहा करते थे। इसीके (वर्षाक३) अन्त में वे सुप्रसिद्ध जैन शिबालेसमें ये हेतु इतने प्रयुक्त स्थान पर है कि मुझे पर्व पयूषण मनाते थे। जैन शास्त्रोंमें पर्यषण बड़ा महत्व दूसरी व्याख्या ही अधिक उपयुक्त अंचती है। (१) भादोंके अंत में पयूषण होता है। तथा चतुर्मासके अन्तमें कार्तिककी अष्टान्हिका पड़ती है। (१) इलियट, १.१.१८. (१) इनसाइकलोपी डिया भोफ रिखीजन तथा विकास (२)इ. एण्टी . भा .. पृ ३४, माग .८.51 (३) एन. एपी टोम मोफ जैनिज्म पृ.६०५.०। () जनंख बो. मा. रो.ए. सोमा...पृ. २१.
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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