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किरण ११]
वैभवकी शृङ्खलाएँ
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किन्तु कुछ समझ में न आ सका था। धनकी मदिरा किसी अदृश्य शक्तिके न्यायालयमें चार अपराधी पीते समय कुछ न सोचा। थोड़ी देरमें वही नशा अपना-अपना हृदय खोल कर अचल हो गये थे। मुझे भी बेहोश बनाने लगा, जिसका परिणाम ज्येष्ठ चारों ओर स्मशान जैसी भयानक नीरवता थी।
घ-कूपमें गिरानेका दृढ़ निश्चय पश्चातापकी लपटें सू-सूकरके पापी हृदयोंका दाहकर लिया। किन्तु स्नेहने विकारी मनको रोक दिया, संस्कार कर रही थीं । एककी ओर देखनेका दूसरेमें बाँध दिया। बच गया पापके पङ्कमें गिरते-गिरते। किंतु साहस न था। मस्तक नत थे, वाणी जड़ थी, विवेक माँ ! ज्ञात होता है पापका बीज फिर आगया है इस गतिमान था। घर में । मित्रवती द्वारा अर्पित रत्न वही रत्न है, माँ। शूरस्त्रि बोला भारी मनसे-'माँ ! इस संसारके
माँ की आकृति पर विषादकी रेखायें गहरी हो थपेड़े अब सहन नहीं होते । काम, क्रोध, माया और चलीं। शूरमित्र बोला-माँ ! अब दुखी होनेसे क्या लालसाका ज्वार उठ रहा है पल पलमें। आत्मा क्षतलाम ? इस रत्नको अपने पास रखो। माँ ! तुम जन्म- विक्षत हो रही है, आधारहीन भटक रही है जहाँ पात्री हो, पवित्र हो, गंगा-जलकी भांति । सन्तानके नहाँ। संसारी सुखोंकी मृग-तृष्णामें कब तक छलू ' लिए माताके मनमें कल्पना भी नहीं प्रामकती, अपने आपको । दर किसी नीरव प्रदेशसे कोई आह्वान । खोटी।
कर रहा है। कितना मधुर है वह ध्वनि? कितना पुत्रोंकी बात सुन मॉका विषाद आँखोंकी राहसे संगीत-मय है वह नाद ? अनादि परम्परा विघटित वह निकला । वह भर्रायो हई ध्वनिमें बोली-बेटा। होना चाहती हैं। देव ! अब सहा नहीं जाता। शरण वैभवको लालमा बड़ी निष्ठुर है। उसे पानेके लिए दो, शान्ति दो। मॉ भी सन्तानको मारने के लिए कटिबद्ध हो जाय, तो
काटबद्ध हा जाय, ता शरमित्र ही नहीं सारे परिवारका वह करुण इसमें क्या आश्चये है? वैभवकी तुधा सर्पिणीकी चीत्कार था: विकलता थी; विरक्ति थी, जो उन्हें कि प्रसव कालीन क्षुधा है जो अपनी सन्तानको निगलने
अज्ञात पथकी ओर खींच रही थी। पर ही शान्त होती है। मैंने भी मछलाके पेटको चीरते
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xxx समय ज्यों ही रत्न देखा, मित्रवती और तुम दोनोंको
प्रभातका समय है। दिनकरकी कोमल किरणें मार डालनेके विचार बलवान होने लगे। पर मॉकी
धरती पर नृत्य करने लगी है। दो युवा पुत्र, पुत्री ममताने विजय पायी और मैंने ही बड़ी ग्लानिस
और माता मुनिराजके चरणों में नतमस्तक हैं । अरहंत मित्रवतीको दे दिया था; वह रत्न ।'
शरणं गच्छामि ! धर्मशरणं गच्छामि !! साधु शरणं मित्रवती बोली-'माँ ! मैं भी हतबुद्धि हो चली थी गच्छामि !!! की ध्वनिसे दिग्-दिगन्त व्याप्त है।
पानक बाद लालसान पारावारक बन्धन ढाल चैभवकी श्रृङ्खलायें, जो मानवको पापमें जकड़ देती हैं, कर दिये थे। एक विचित्र पागलपन चलने लगा था खण्ड खण्ड हो गई हैं। उदय-कालीन सूर्यकी रश्मियाँ मस्तिष्कमें। सौभाग्य है कि दुर्विचार शांत हो गये हैं।' पल-पल पर उनका अभिषेक कर रही है। आज उनकी
आत्मामें अनन्त शान्ति है।
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