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________________ धर्म और राष्ट्र निर्माण (लेखक-आचार्य श्रीतुलसी) धर्म उत्कृष्ट मंगल है। प्रश्न होता है-कौन सा धर्म? जमा लेना राष्ट्र-निर्माण है। यदि इन्हींका नाम राष्ट्र-निर्माण क्या जैनधर्म, क्या बौद्धधर्म, क्या वैदिक धर्म? नहीं यहाँ होता है तो मैं बल पूर्वक कहूँगा-यह राष्ट्र-निर्माण नहीं जो धर्मका स्वरूप बताया गया है वह जैन, बौद्ध या वैदिक बल्कि राष्ट्रका विध्वंस है, विनाश है। ऐसे राष्ट्रके निर्माणमें सम्प्रदायसे सम्बन्धित नहीं। उसका स्वरूप है-अहिंसा, धर्म कभी भी सहायक नहीं हो सकता। ऐसे राष्ट्र-निर्माणसे संयम और तप । जिस व्यक्किमें यह त्रयात्मक धर्म अवतरित धर्मका न कभी सम्बन्ध था और न कभी होना ही चाहिए। हुआ है उस व्यक्ति के चरणों में देव और देवेन्द्र अपने मुकुट यदि किसी धर्मसे ऐसा होता हो तो मैं कहूँगा-वह धर्म. रखते हैं । देवता कोई कपोल-कल्पना नहीं है। वह भी एक धर्म नहीं बल्कि धर्मके नाम पर कलंक है । धर्म राष्ट्रके कलेमनुष्य जैसा ही प्राणी है। यह है एक अमाम्प्रदायिक विशुद्ध वरका नहीं उसकी आत्माका निर्माता है । वह राष्ट्रके जनधर्मका स्वरूप । जनमें फैली हुई बुराइयोंको हृदय परिवर्तनके द्वारा मिटाता आप पूछेगे-महाराज ! आप किस सम्प्रदायक धर्मको है। हम जिस धर्मकी विवेचना करना चाहते हैं वह कभी अच्छा मानते हैं ? मैं कहूंगा-सम्प्रदायमें धर्म नहीं है। उपरोक्त राष्ट्र के निर्माणमें अपना अणुभर भी सहयोग नहीं द तो धर्मप्रचारक संस्थायें हैं । वास्तवमें जो धर्म जीवन-शुद्धिका सकता। मार्ग दिखलाता है वही धर्म मुझे मान्य है । फिर चाहे उस धर्मसे सब कुछ चाहते हैं धर्मके उपदेष्टा और प्रवर्तक कोई भी क्यों न हो? जीवन शुध्द्यात्मक धर्म सनातन और अपरिवर्तनशील है वह चाहं. धर्मकी विवेचना करनेके पहले हम यह भी कुछ सोच ले कहीं भी हो, मुझे सहर्ष ग्राह्य है। कि धर्मकी आज क्या स्थिति है ? और लोगोंके द्वारा वह किस रूपमें प्रयुज्य है? धर्मक विषयमें आज लोगोंकी सबस आज जो विषय रखा गया है वह सदाकी अपेक्षा कुछ बड़ी जो भूल हो रही है वह यह है कि धर्मको अपना उपजटिल है। जहाँ हम सब प्रात्मनिर्माण, व्यक्रि-निर्माण और कारी समझ कर उसे कोई बधाई द या न दे परन्तु दुन्कार जननिर्माणको लेकर धर्मकी उपयोगिता और औचित्य पर आज उस सबसे पहले ही दी जाती है। अच्छा काम हुआ प्रकाश डाला करते हैं, आज वहाँ राष्ट्रनिर्माणका सवाल जोड तो मनुष्य बड़े गर्वस कहेगा-मैंने किया है और बुरा काम कर धर्मक्षेत्रकी विशालताकी परीक्षाक लिए उसे कमीटी पर हो जाता है तो कहा जाता है कि परमात्माकी एसी ही मर्जी जाना जाता उपस्थित करना है। इस विषय पर जिन वनाओंने आज दिल थी? आगे न देखकर चलनेवाला पत्थरसे टक्कर खाने पर खोल कर असंकीर्ण दृष्टिकोणसे अपने विचार प्रकट किये हैं यही कहेगा कि किस बेवकूफने रास्ते में पत्थर ला कर रख इस पर मुझे प्रसन्नता है। दिया। मगर वह इस ओर तो कोई ध्यान ही नहीं देता कि राष्ट-विध्वंस यह मेरे देख कर न चलनेका ही परिणाम है। लोगोंकी कुछ विषयमें प्रविष्ट होते ही सबसे पहले प्रश्न यह होता है ऐसी ही आदत पड़ गई है कि वे दोषोंको अपने सिर पर कि राष्ट्र-निर्माण कहते किसे हैं ? क्या राष्ट्रकी-दूर-दूर नक लेना नहीं चाहते, दूसरोंके सिर पर ही मढना चाहते हैं। मीमा बढ़ा देना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या सेना बढ़ाना राष्ट्र- अहिंसाका उपयुक्र पालन तो स्वयं नहीं करते और अपनी निर्माण है ? क्या संहारके अस्त्र-शस्त्रोंका निर्माण व संग्रह कमजोरियों, भीरुता और कायरताका दोषारोपण करते हैंकरना राष्ट्र-निर्माण है ? क्या भौतिक व वैज्ञानिक नये-नय अहिंसा पर । धर्मके उसूलों पर स्वयं तो चलते नहीं और आविष्कार करना राष्ट्र-निर्माण है? क्या सोना-चाँदी और भारतकी दुर्दशाका दोष थोपते हैं-धर्म पर । मेरी दृष्टिमें यह रुपये पैसोंका संचय करना राष्ट्र-निर्माण है? क्या अन्याय भी एक भयंकर भूल है कि लोग अच्छा या बुरा सब कुछ शक्तियों व राष्ट्रों को कुचल कर उन पर अपनी शक्रिका मिका धर्मक द्वारा ही पाना चाहते हैं, मानो धर्म कोई 'कामकुम्भ'
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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