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किरण १]
अध्यात्म तरंगिणो टीका
शक संवत् ८८८ (वि० सं० १०२३) के अरिकेशरी प्राचार्य सोमदेवके इस अध्यात्मतरंगिणी प्रन्य पर वाले दानपत्रसे, जो उनके पिता बचगदेवके बनवाए हुए एक संस्कृत टीका भी उपलब्ध है, जिसके कर्ता मुनि गबशुभधाम जिनालायके लिये प्राचार्य सोमदेवको दिया गया धरकीति है। टीकामें पच गत वाक्यों एवं शब्दोंके प्रर्थक था। उससे यह स्पष्ट है कि यशस्तिलकसम्पूकी रचना इस साथ-साथ कहीं-कहीं उसके विषयको भी स्पष्ट किया गया ताम्रपत्रसे सात वर्ष पूर्व हुई है ।
है. विषयको स्पष्ट करते हुए भी कहीं-कहीं प्रमाणरूपमें यहाँ पर यह जान बेनामावश्यक है कि जैन समाजके समन्तभद्र, अकलंक, और विद्यानन्द प्रादि प्राचार्योक दिगम्बर श्वेताम्बर विभागोंमेंसे श्वेताम्बर समाजमें राज- नामों तथा अन्योंका उल्लेख किया गया है, टीका नीति पर सोमदेवके 'नीतिवाक्यामृत' जैसा राजनीतिका अपने विषयको स्पष्ट करने में समर्थ है। इस टीकाकी कोई महत्वपूर्ण प्रन्थ लिखा गया हो यह ज्ञात नहीं होता, इस समय दो प्रतियां उपलब्ध हैं, एक ऐबक पक्षालाब पर दिगम्बरसमाजमें राजनीति पर सोमदेवाचार्यका दिगम्बर जैन सरस्वति भवन झालरापाटनमें और दूसरी 'नीतिवाक्यामृत' तो प्रसिद्ध ही है। परन्तु यशस्तिलक- पाटनके श्वेताम्बरीय शास्त्रभंगारमें, परन्तु वहां वह खंडित चम्पमें राजा यशोधरका चरित्र चित्रण करते हुए कविने रूपमें पाई जाती है -उसकी प्रादि अन्त प्रशस्तिो उक ग्रन्थके तीसरे पाश्वासमें राजनीतिका विशद विवेचन खण्डित है हो । परन्तु ऐ० पन्नालाल दि. जैन सरस्वतिकिया है। परन्तु राजनीतिकी वह कठोर नीरसता, कविस्व. भवन झालरापाटनकी प्रति अपने में परिपूर्ण है। यह प्रति की कमनीयता और सरसताके कारण अन्यमें कहीं प्रतीत संवत् ११३० आश्विन शुक्ला के दिन हिसारमें नहीं होती और उससे प्राचार्य सोमदेवकी विशाल प्रज्ञा (परोजापत्तन) में कुतुबखानके राज्यकालमें सुवाच्य अधरोंएवं प्रांजल प्रतिभाका सहज ही पता चल जाता है। में लिखी गई है, जो सुनामपुरके वासी खंडेलवाल शो
सोमदेवाचार्यके इस समय तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते संघाधिपति श्रावक 'कन्हू' के चार पुत्रोंमेंसे प्रथम पुत्र हैं, नीतिवाक्यामृत, यशस्तिलकचम्पू और अध्यात्मतरं- धीराकी पत्नी धनधीके द्वारा जो श्रावक धर्मका अनुष्ठान गिणी। इनके अतिरिक्त नीतिवाक्यामृतकी प्रशस्विसे तीन करती थी, अपने ज्ञानावरणीय कर्मके यार्थ लिखाकर प्रन्योंके रचे जानेका और भी पता चलता है-युक्ति- तात्कालिक भट्टारक जिनचन्द्रके शिष्य पंडित मेधावीको चिंतामणी, २ त्रिवर्ग महेन्दमातलिसंजप और ३ षण- प्रदानकी गई है। इससे यह प्रति १०० वर्षकै बगभग वति प्रकरण । इसके सिवाय, शकसंवत् ८८८ के दानपत्र- पुरानी है। में प्राचार्य सोमदेवके दो ग्रन्थोंका उल्लेख और भी है टीकाकार मुनि गणधरकीर्ति गुजरात देशके रहने वाले 'जिसमें उन्हें 'स्याद्वादोपनिषन्' और अनेक सुभाषितोंका थे। गणधरकीर्तिने अपनी यह टीका किसी सोमदेव नामभी कर्ता बतलाया है। परन्तु स्वेद है कि ये पांचों ही के सज्जनके अनुरोधसे बनाई है, टीका संक्षिप्त और ग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध है । संभव है अन्वेषण करने ग्रन्थार्थको अवबोधक है। टीकाकी अन्तिम प्रशस्तिमें पर इनमें से कोई ग्रन्थ उपलब्ध हो जाय । ऊपर उल्लिखित टीकाकारने अपनी गुरुपरम्पराके साथ टीकाका रचनाकाल उन पाठ प्रन्योंके अतिरिक्त उन्होंने और किन ग्रन्यांकी भी दिया है। गुरु परम्परा निम्न प्रकार है:रचना की है यह कुछ ज्ञात नहीं होता।
सागरनन्दी, स्वर्णनन्दी, पदमनन्दी, पुष्पदन्त, प्रसाध्य मेलपाटी प्रवर्धमानराज्यप्रभावे मति तत्पाद- कुत्रलचन्द्र और गणधरकीर्ति । पद्मोपजीविनः समधिगत पञ्चमहाशब्दमहासामन्ताधि--- पतेखालुक्यकुलजन्मनः सामन्तचुदामणेः श्री मदरि
सम्बत् ११३५ वर्षे भासोज सुदि २ दिने हिसार केसरियः प्रथम पुत्रस्य श्री मदचगराजस्य लक्ष्मी प्रवर्धमान
पेरोजापत्तने लिखितमिति ।। वसुधारायाँ गाधारायाँ विनिर्मापित मिदं काम्यमिति ।"
श्रियं क्रियान्नरामर्त्य नागयाच्य पदाम्बुजः ।
देवोध्यात्मतरंगिण्याः शास्त्रदात जिनोऽनघां। - देखो, एपि ग्राफिक इंडिका पृष्ठ २८१ में प्रकाशित त्रयस्त्रिंशाधिक वर्षे शत पंच दश प्रमो। करहार ताम्रपत्र।
शुक्ल पक्षश्वने मासे द्वितीयायां सुबासरे ॥२॥
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