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निर्दोशसप्तषीव्रतकथा, श्रीपालरास, और भविष्यदत्तकथा । इन्होंने नेमीश्वररात सं० १६२२ में हनुवंत कथा सं० १९१६ में, प्रथमचरित सं० १६२८ में सुदर्शनरास, सं० १६२६ में और श्री पालरास सं० १६३० में, तथा भवियसकथा सं० १६५३ में बनाकर समाप्त की है। निदोंसप्तमी कथाकी प्रतिमें सुझे रचनाकाल नहीं मिला, संभव है अन्य किसी प्रतिमें मिल जाय। इनके अतिरिक्त इनकी और भी रचनाओंका होना संभव है।
अनेकान्त
किरण १]
तक पाया जाता है। अतएव श्री भूषणके शिष्य ज्ञानसागरका समय भी विक्रमको १०वीं शताब्दीका उत्तराद सुनिश्चित है। ज्ञानसागरकी इस समय १० रचनाओंका पता चला है, जिनमें ६ बतोंकी कथाएँ और एक पूजन है। ये सब रचनाएँ हिन्दी पथोंमें रची गई है जिनकी कविता साधारण हैं। ये नौ कथाएँ धर्मपुरा देहलीके नया मन्दिर शास्त्र भण्डारके गुटका नम्बर 1 में हुरचित हैं, उनके नाम इस प्रकार है:- १ यादित्यवार लघु कथा, २ श्रष्टान्हिक व्रत कथा ३ सोलह कारकारण व्रत कथा, ४ आकाशपञ्चमी कथा, ५ रत्नत्रयव्रतकथा, ६ शीतकथा, ७ धनन्तचतुर्दशीका ८ निःशल्पाष्टमी कथा और सुगन्धदशमी कया इन कपायोंके अतिरिक मकामरस्तवन पूजन नामकी कृति भी अन्य पाई जाती है। अन्य रचनाएँ हैं।
६ ब्रह्म ज्ञानसागर - काष्ठासन्ध नन्दीतट गच्छ और ferries भट्टाra faद्याभूषणके शिष्य श्रीभूषणके शिष्य थे, जो सम्भवतः सौजित्राकी गद्दोके भट्टारक थे। इन्हीं भ० श्रीभूषण के शिष्य प्रस्तुत मह्मज्ञानसागर है। भ० श्रीभूषण विक्रमको १०वी शताब्दी के विज्ञान है क्योंकि उनका रचनाकाल सम्बत् १६५६ से सम्बत् १६६७
अध्यात्म तरङ्गिणी टीका
(ले० परमानन्द जैन शास्त्री )
हारिथी थी। इन्हीं सब कारणोंसे उस समयके विद्वानोंमें श्राचार्य सोमदेवका उल्लेखनीय स्थान था ।
प्राचार्य सोमदेव 'गोडसंघ के विद्वान आचार्य यशोदेवके प्रशिष्य और नेमिदेवके शिष्य थे। सोमदेवने अपना यशस्तिलक चम्पू नामका काव्य-प्रन्थ बनाकर उस समय समाप्त किया था, जब संवत् (वि० सं० १०१६) में सिद्धार्थ संवत्सरान्तर्गत चैत्र शुक्खा प्रयोदशीके दिन, श्री कृष्णदेव (तृतीय), जो राष्ट्रकूट वंशके राजा श्रमोधवर्षके तृतीय पुत्र थे, जिनका दूसरा नाम 'अकालवर्ष था, पाया सिंहल, चोख और चेर आदि राजाचोंको जीतकर मेहपाटी (मेलादि नामक गाँव) के सेना शिविर में विद्यमान थे। उस समय उनके चरणकमलोपजीवी सामन्त वगिकी जो चालुक्यवंशीय राजा अरिकेसरी प्रथमके पुत्र गंग बारा नगरी में उक्त ग्रन्थ समाप्त हुआ था ।
'अध्यात्मतरंगिणी' नामक संस्कृत भाषाका एक छोटा सा ग्रन्थ है जिसकी श्लोक संख्या चालीस है। इस ग्रन्थका नाम बम्बईके ऐ० पचाखाल दि० जैन सरस्वति भवनकी प्रतिमें 'योगा' दिया हुआ है। चूंकि प्रथमं 'योगमार्ग' और योगीका स्वरूप बतलाते हुए श्रात्मविकासकी चर्चा की गई है। इस कारण यह नाम भी सार्थक जान पड़ता है। इस प्रथके कर्ता है आचार्य सोमदेव । यद्यपि सोमदेव नामके अनेक विद्वान हो गए हैं; परन्तु प्रस्तुत सोमदेव उन सबसे प्राचीन, प्रधान और लोकप्रसिद्ध विद्वान थे। सोमदेवकी उपलब्ध कृतियाँ उनके पावित्यो निदर्शक है। संस्कृतभाषा पर उनका असाधारण अधिकार था, वे केवल काव्य ममेश ही न थे; वं केवल काव्य मर्मज्ञ ही न थे; किन्तु राजनीतिके प्रकाण्ड पण्डित थे। वे भारतीय काव्यप्रम्योंके विशिष्ट अध्येता थे। दर्शनशास्त्रोंके समंश और व्याकरण शास्त्र के अच्छे विद्वान थे । उनको वाणी में प्रोज, भाषामे सोडवता और काम्प-कक्षायें दक्षता तथा रचनायें
प्रासाद और गाम्भीर्य है। सोमदेवकी सूक्तियाँ हृदयोदय पावल्य सिंहल, चोल, चेरमप्रतीन्महीपती
* शकन्टपकालातीत संवत्सरशतेष्वष्टस्वेकाशीत्यधिकेषु गतेषु (८८) सिद्धान्तचेत्रमास मदन