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________________ विषय-सूची २२१ २८८ २०२ 1. शान्तिनाथ स्तुति: . श्री श्रुतसागर सूरि २. पाठ शंकानोंका समाधान [लक सिद्धि सागर ३. हमारी तीर्थ यात्रा संस्मरण [परमानन्द शास्त्री १. राष्ट्र कूट कालमें जैन धर्म [रा. अ. स. अल्तेकर ५. मथुराके अनस्तूपादिकी [यात्राके महत्वपूर्ण उल्लेख ६. अपभ्रश भाषाके अप्रकाशित कुछ ग्रन्थ [परमानन्द जैन . संस्कृत साहित्यके विकासमें जैन विद्वानोंका सहयोग .. दोहाणुपेहा- बक्ष्मीचन्द २६३ २६५ ३०२ २८३ श्री-जिज्ञासा मुझे उन नियोको जाननेकी इच्छा है जो पुलका-ऐलको तथा मुनियोंके साथ लगी रहती हैं और जिनका सूचन पुस्तक-एलकोंके नामके साथ 'श्री १०" और मुनियों के नामके साथ श्री १०८ लिखकर किया जाता है। ये दोनों वर्गकी नियां यदि भिन्न भिन्न हैं तो उन सबके अलग-अलग नाम मालुम होनेकी जरूरत है और यदि मुनियोंको १०८ श्रियोंमें १०१ वे ही हैं जो चुल्लको ऐनकोंके साथ रहती है तो १०५ श्रियोंके नामके साथ केवल उन तीन श्रियोंके नाम और दे देनेकी जरूरत होगी जो चुल्लक-ऐलकोंकी अपेक्षा मुनियों में अधिक पाई जाती है। साथ ही यह भी जाननेको इच्छा है कि श्रियोंका वह विधान कौनमे पागम अथवा पार्य प्रथमें पाया जाता है, कबसे उनकी संख्या-सूचनका यह व्यवहार चालू हुभा है और उसको चालू करनेके लिये क्या जरूरत उपस्थित हुई है। मःमुनिमहाराजों, बुलकों-और दूसरे विद्वानोंसे भी मेरा विनम्र निवेदन है कि वे इस विषयमें समुचित प्रकाश डालकर मेरी जिज्ञासाको तृप्त करनेकी कृपा करें। इस कृपाके लिये मैं उनका बहुत भाभारी रहूंगा। -जुगलकिशोर मुख्तार अनेकान्तकी सहायताके सात मार्ग (1) अनेकान्तके 'संरतक' तथा 'सहायक' बनना और बनाना । (२) स्वयं अनेकान्तके ग्राहक बनना तथा दूसरोंको बनाना । (३)विवाह-शादी भादि दानके अवसरों पर अनेकान्तको अच्छी सहायता भेजना तथा भिजवाना। (४) अपनी ओर से दूसरोंको अनेकान्त भेंट-स्वरूर अथवा फ्री भिजवाना; जैसे विद्या-संस्थाओं लायरियों, सभा-सोसाइटियों और जैन-अजैन विद्वानोंको। (१) विद्यार्थियों श्रादिको अनेकान्त अर्ध मूल्यमें देनेके लिये २५),५०) आदिकी सहायता भेजना। २५ की सहायतामें १ को अनेकान्त अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा। ()अनेकान्तके ग्राहकोंको अच्छे अन्य उपहारमें देना तथा दिलाना । (७) लोकहितकी साधनामें सहायक अच्छे सुन्दर लेख लिखकर भेजना तथा चित्रादि सामग्रीको प्रकाशनार्थ जुटाना। नोट-दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोंको सहायतादि भेजने तथा पत्रव्यवहारका पताः'भनेकान्त' एक वर्ष तक भेंट मैनेजर 'अनेकान्त' स्वरूप भेजा जायगा। वीरसेवामन्दिर, १, दरियागंज, देहली।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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