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अनेकान्त
[किरण.
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टीकाकार रूपचन्दजीका विशेष परिचय कराना मावश्यक रूपचदका जन्म समय वंशवस्थानसमका गया। गत कार्तिकमें राजस्थान विश्व विद्यापीठ
लश्कर मंदिरके इस संग्रहमें महोपाध्याय रूपचन्दजीके उदयपुरके महाकवि सूर्यमल भासनके 'राजस्थानी जैन
मष्टकको एक पत्रको प्रतियें प्राप्त हुई। इस मष्टकसे माहित्य' पर भाषण देनेके लिये उदयपुर जामेका प्रसंग
रूपचन्दजी सम्बन्धित कुछ ज्ञातम्य ऐतिहासिक बातें मिला, तब चित्तौब भी जाना हुमा । और संयोगवश
विदित हो सकी। तथा इसके पांचवें पद्यमें रूपचन्दजीके प्रस्तुत रूपचन्दजीके शिष्य परम्पराके यतिवर श्रीवालचंद
वंशका परिचय इस प्रकार दिया हैजीके हस्तलिखित ग्रन्थोंको देखनेका सुअवसर मिला। आपके संग्रह में रूपचन्दजी व उनके गुरु एवं शिष्यादिके
'वागदेवता मनुजरूप धरामरीच,
श्रीश्रोसवंशवर अंचलगोत्र शुद्धाः। हस्तलिखित व रचित भनेक प्रन्योंकी प्रतियाँ अवलोकनमें
श्री पाठकांचमगुगर्जयति प्रसिद्धाः 'माई, इसमे भापका विशेष परिचय प्रकाशित करने में और भी प्रेरणा मिली। प्रस्तुत लेख उसी प्रेरणाका
सस्पग्लिकापुष्करे भहमले च ॥ परिणाम है।
अष्टादशेव शतके 'चतुरुत्तरे च,
त्रिंशतमेव समये गुरुरूपचन्द्राः । महोपाध्याय रूपचन्दजी अपने समयके एक विशिष्टका
पाराधनां धवनभावयुतां विधाय, विद्वान एवं सुकवि थे। श्रापकी रचनामाका परिचय मुझे गत
भायु सुखं नवति वर्षमितं च भुक्त्वा । २१ वर्षसे बीकानेरके जैन ज्ञानभंडारोंका अवलोकन करने पर मिल ही चुका था। पर आपके जन्म स्थान, वंश
अर्थात् भापका वंश भोसवान व गोत्र आंचलिया मादि जीवनी सम्बन्धी बातें जानने के लिये कोई साधन था। संवत् १३४ में पाराधना सहित आपका स्वर्गवास प्राप्त नहीं था । १६ वीं सदीके प्रसिद्ध विद्वान, उपाध्याय १० वर्षकी उम्रमें पाली में हुमा। समाकल्याणजीने महोपाध्याय रूपचन्दजीका गुण वर्णना- चित्तौरके यति बालचन्दजीके संग्रहके एक गुटके में स्मक-अष्टक बनाया । वह अवलोकनमें पाया पर इनका जन्म सं० १७१४ लिखा है और स्वर्गवास सं. उसका कुछ इतिवृत्त नहीं मिला। गत वर्ष मेरे पुत्र धर्मचंद- १८ । यद्यपि ये दोनों उल्लेख रूपचन्दजीके शिष्य के विवाहके उपलक्ष्य में लश्कर जाना हुभा, ता वैवाहिक परंपरा ही है। पर हमें अष्टक वाला उल्लेख अधिक कार्यों में जितना समय निकल सका, वहांके श्वेताम्बर प्रामाणिक प्रतीत होता है। अष्टककी रचना शिवचन्दके मन्दिरके प्रतिमा लेखोंकी नकल करने एवं हस्तलिखित शिष्य रामचन्द्र ने की थी। सम्बत् १११० के मार्गशिर सुदी भंडारके अवलोकनमें लगाया। क्योंकि हस्तलिखित ग्रन्थों पूनमको यह अष्टक बनाया गया है। इसमें रूपचन्दजीके की खोज मेरा प्रिय विषय बन गया है। जहाँ कहीं भी स्वर्गवास पर झालरके पासमे जिनकुशनसूरिजीके रूपके उनके होनेकी सूचना मिलती है उन्हें देख कर अज्ञात दक्षिण दिशामें रूपचन्दजीकी पादुकायें संवत् १८५. में सामग्रीको प्रकाश में जानेकी प्रबल उत्कंठा हो उठती है स्थापित करनेका उल्लेख है। चित्तौड़के गुटकेके अनुसार इसीके फलस्वरूप अब भी मेरा कहीं जाना होता है सर्व रूपचन्दजोकी मायु ११ वर्षकी हो जाती है और अष्टकप्रथम जैन मन्दिरोंके दर्शनके साथ वहांकी मूर्तियोंके लेख में स्पष्टरूपसे १० वर्षकी मायुमें स्वर्गवास होनेको लिखा लेने एवं हस्तलिखित ज्ञानभंडारोके अवलोकन इन दो है। मेरी रायमे वही उल्लेख ठीक है इनके अनुसार कार्योक लिये अपना समय निकाल ही लेता हूँ। अपने रूपचन्दजीका जन्म संवत् १७४४ सिद्ध होता है। चित्तौड़ पुत्रके विवाहके उपबच में जाने पर भी इन दोनों कामोंके वाले गुटकेमें १०३४ स्मृति कोषसे लिखा गया प्रतीत लिए लश्करमें कुछ समय निकाला गया। वहांके श्वेताम्बर होता है इनके गोत्रका नाम चलिया है। जिसकी वस्ती जैन मन्दिरकी धातु मतियांके लेख लिये गये और उस बीकानेरके देशनोक आदि कई गांवों में अब भी पाई जाती मन्दिरमें ही स्तलिखित ग्रन्थोंका खरतर गमीय यतिजी- है। अतः रूपचन्दजीका जन्म स्थान बीकानेरके ही किसी का संग्रह था, उसे भी देख लिया गया !
प्राममें होना चाहिये।