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माकीर्ति (५)
धर्मसुन्दर
)
[किरण समयसारके टोकाकार विद्वद्वर रूपचन्दजी
[२२६ मंवतानुक्रम इतिवृत्त लेखनकी प्रणाली
(१) जिनकुशजसूरि प्राचार्यपद सम्बत् ११. से
सम्बत् १३८८ में स्वर्गवास । खरतर गमछमें वीं शतीसे ऐतिहासिक वृतांत लिखा जाता रहा है। फलत: जिनदत्तसूरिजीके शिष्य मणिधारी
(२) महोपाध्याय विनयप्रभ (गौतमरासके रचयिता) बिन चन्द्रसरिसे लगाकर जो मूर्ति व मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा, (९) विजय तिलक (सुप्रसिद्ध शत्रुम्जय स्तवनके दीक्षा आदि महत्वपूर्णकार्य दफ्तर वही में लिखे रचियता) जाने लगे। जिनके आधारसे युगप्रधान गुरु वावनीका (१)माकीर्ति (२) उपाध्याय तपोरन (१)वचक प्रथम संकलन जिनपान उपाध्यायने संवत् १३०५ के पास- मुवनमोम (७) साधु रा (6) वा. धर्मसुन्दर (6)मा. पास किया था। जिसके पश्चात् उनकी पूर्ति समय समय दान विनय (10) वा. गुणवर्द्धन (11) श्रीसोम (१२) पर इस गच्छके अन्य विद्वान यतिगण करते रहे । संवत् शान्ति हर्ष (१३) जिनहर्ष। १३५ तककी संबतातुक्रमसे लिखित घटनाओंके संग्रह वाली युगप्रधान गुर्वावलिकी प्रति बीकानेरके समा- .
इनमें कई तो उच्च विद्वान ग्रंशकार हो गये है. कविवर कल्याणजीके ज्ञान भंडारमें हैं। हमें वह करीब १५ वर्ष
जिन-हर्ष तो बहुत बड़े लोक भाषाके कवि थे। इनकी रचनाएँ
खाधिक श्लोक परिमाणकी प्राप्त है। मूलतः राजपूर्व प्राप्त हुई थी। यह अपने ढङ्गका एक अद्वितीय ऐति
स्थानके थे। जसराज इनका मूल नाम था। सम्बत् १७०४ हासिक ग्रन्थ है। इसके महत्वके सम्बन्ध में भारतीय विद्यामें हमने एक लेख भी प्रकाशित किया था। सिंधी जैन ।
से सम्बत् १७६३ तककी भापकी सैकड़ों रचनायें उपलब्ध
है आपका प्राथमिक जीवन राजस्थान में बीता तब तककी प्रन्थमालासे करीब १० वर्ष हुए यह कपी हुई पड़ी है।
इनकी रचनाओंकी भाषा राजस्थानी ही है। पीछेसे ये गुजपर मुनि जिनविजयजीके प्रस्तावना आदिके लिये भी उसका
रात व पाटणमें किसी कारणवश जाके जम गये। अतः प्रकाशन रुका हुआ है। इसके बादकी गुर्वावती जैसलमेर
उत्तरकालीन रचनामोंकी भाषामें गुजरातीकी प्रधानता है। के बड़े ज्ञान भंडारमें होनेका उल्लेख मिला था । पर अब
आपके सम्बन्धमें राजस्थान क्षितिज' नामक मासिक पत्र में वह प्रति वहाँ नहीं है। परवर्ती कई दफ्तर-वाहिये भी अब
सुकवि जसराज और उनकी रचनायें शीर्षक मेरा लेख प्राप्त नहीं हैं । संवत् १७००से फिर यह सिलसिला मिलता है। जिससे विगत ३०० वष म खरतरगच्छकी
प्रकाशित हो चुका है। भट्टारक शाखामें जितने भी मुनि दीक्षित हुए उनका मूल
महोपाध्याय रूपचन्दजीने अपनी रचनाओंके चम्तमें नाम क्या ण दीक्षा नाम क्या रक्खा गया, किमका शिष्य
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स्वगुरु परम्पराका परिचय देते हुए अपने को मशाखाके बनाया गया। किस सम्बत् व मितीमें कहाँ पर किस
शान्तिहर्षके शिष्य वाचक सुखवर्धनके शिष्य वाणारस आचावके पाम दीक्षा ली गई, इसकी सूची मिल
दयासिंहका शिष्य बतलाया है। मापकी लिखित अनेक जाती है।
प्रतियां यति बालचन्दजोके संग्रहमें देखनेको मिली। उनसे
मापके भारतम्यापी विहार एवं चतुर्मास करने का पता रूपचंदजीकी दीक्षा
चलता है। मैंने एक ऐसीही दातर वहीसे दीक्षा सूचीकी नकल
ग्रन्थ रचनाप्राप्त की है। उसके अनुसार रूपचन्दजी की दीक्षा सम्वत् १७१५ के वैशाख वदी २ को विल्हावास गांवमें श्राचार्य
मापकी उपलब्ध रचनामों में प्रथम समुद्रपद वित्त.. जिनचन्द्रसूरिजीके हाथसे हुई थी। ये दयासिंहजीके शिष्य
१७ में विष्हावासमें रचित प्राप्त और अन्तिम रचना थे। और इनकी दीपाका नाम रामविजय रखा गया।
संवत् १८२६ की है। इससे १६ वर्ष वार साहित्य
सेवा करते रहे। जिससे पापकी रचनाओंसे चापकी विदूतागुरु परम्परा
का भलिभाति पता चल जाता है। संस्कृत एवं राजस्थानी में आपकी रचना एवं अन्य साधनोंके अनुसार इनकी गद्य एवं पब दोनों प्रकारकीरचना मायबाप सुकवि गुरु परम्पराकी नामावली इस प्रकार विदित हुई है। होनेके साथ २ सफर टीकाकार मी संस्कृतभाषाके
दीक्षित हुए
के शिष्य वा