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किरण ]
हि दी जैन साहित्यमें अहिंसा
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अहिंसाका अर्थ है कर्तव्य परायणता। अपन कर्तव्यसे प्रसादजोने लिखा है-'सबसे ऊंचा प्रादर्श जिसकी कल्पना विमुख होनेपर ही हिमामें प्रवृत्ति होती है। साधारणतः मानवमस्तिष्क कर सकता है अहिंसा है। अहिंसाके हिसा दो प्रकार की होती है-1. द्रव्य हिंसा और २. मिद्धा-तका जितना व्यवहार किया जायगा उतनी ही मात्रा भाव हिंसा। कविवर वृन्दावनदासजीने भी हिंसाके दो सुख और शान्तिकी विश्वमंडल में होगी। यदि मनुष्य भेद मान है
अपने जीवनका विश्लेषण करे तो इस परिणाम पर पहुंचेगा 'हिंसा दोय प्रकार है, अंतरबाहिजरूप ।
कि सुख और शान्तिके लिये प्रान्तरिक सामजस्थकी ताको भेद लिखों यहां, ज्यों भापी जिनभूप ।। ६४ ॥ आवश्यकता है।' अंतरभाव अशुद्ध करि, जो मुनि वरतत होय ।
यह मान्तरिक सामंजस्यकी स्थिति तभी उत्पन होती घातत शुद्ध मुभाव निज,प्रवल मुहिंसक होय ॥ ५॥ है जब मनुष्यका सब प्राणियों के प्रति साम्यदृष्टि-बिन्दु हो। अरु वाहिज विनु जतन जो, करै चरन आप। सबसे परस्पर प्रेम भाव हो, मनुष्यको सूचमसे सूचमतर तहं पर जियको घात हो, वा मति होह कदाप ॥६६॥ प्राणीको कष्ट पहुँचानेका अधिकार नहीं। कष्ट सब जीवोंको अंतर निज हिंमा कर, अजतनचारी धार ।
अप्रिय होता है। सुख अनूकूल लगता है, दुःख प्रतिकूल ताको मुनिपद भंग है, यह निहचे निरधार ॥ १७॥ बगता है । जहाँ अहिंसा सब प्राणियों में मैत्रीभाव स्थापित ज मुनि शुद्धोपयोग जुत, ज्ञान प्रान निजरूप। करती है वहीं हिंसा अथवा क्रूरता वैर-भाव प्रकट ताको इच्छा करन नित, निरखत महज स्वरूप। हमा१ करती है। सूचमप्टिम अवलोकन करनपर यह स्वतः अनुभवमे
जैन-साहित्यमें अहिंसा तीन भागांमे विभक्त की गई आता है कि व्यक्ति कषाय करके स्वयं अपने भावोंका है-1. आध्यात्मिक हिसा, २. नैतिक अहिंसा और हनन करता है इसीलिये वह हिसक है अतः किसीके प्रति ३. बौद्धिक अहिंसा ।। राग या द्वेषके प्रभावको महिंसाकी संज्ञा दी जाती है। आध्यात्मिक अहिंसा का महत्व प्रारम-भावोंकी
अपनी महत्वपूर्ण कृति 'हिन्दुस्तानकी पुरानी सभ्यता' निर्मलता है इसी कारण जैनदर्शनमें भावनाको प्रधानता में प्रयाग विश्वविद्यालयके भूवपूर्व प्रोफेसर डा.वेणी- दी गई है। क्योंकि जहां भावोंमे कशता कठोरता एवं roached the bride's castle, be heard
फरताका दिग्दर्शन होता है वहां अवश्य हिसा होती है।
करता निर्बलतासे आती है। प्रास्मानर्बलताही कायरता the bleating and uioanmg of animals
अथवा हिसाको जनक है। इसीसं जैनधर्मन प्रान्तरिक in the cattie pen upon inquirv he boud
भावशुद्धि पर जोर दिया है। कारणकि भावांकी विशुद्धता that the animals were to be slaughte
ही अहिंसाकी प्रतिष्ठाको प्रतिष्ठापन करनमें सहायक है। red for the guests his own friends and
साधारणतः मनुष्यका यह कर्तव्य है कि वह भावनास party.
कार्यकी पहचान करें। अपने प्रेम व सहृदयताको भावनाके "Compossion surged in the youth
द्वारा शत्रोके हृदयको परिवर्तित कर उनके हृदय में प्रमful breast of Naminath and the torture
भावको स्थापित करना अहिंसा ही है। अहिंसा कठोरस which his mariage would cause to NO
कठोर विरोधोंका सामना करती है। अतः किसी भी व्यक्तिके many dumb ereature, pa'd bere be
प्रति कुविचार न रखते हुए प्रात्मसमपर्णकी भावना रखना tore him the mockery of buman civi
ही अहिंसाका वार्तावक पालन है। ligation and heartless selbishness. He
तिक अहिंसासे तात्पर्य है कि प्रत्येक प्राणी समाजके blung away his princly ornaments and repaired at once to the forest."
नयको समक्ष रखकर अपने जीवनकी भावश्यकताओंको
इतना सीमित रक्खें जिससे उसके स्वयंका जीवन तो शुद्ध [Cutlines of Jainisim PXXXIV ] प्र.परमागम पृ.१७१६-१८..
२ हिन्दुस्तानकी पुरानी सम्बता पृष्ठ ६३ ।