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भनेकान्त
[किरण १
वापत रहा है, यह एक
. उस दृष्टिको मात्माम
जागृत और तदन
नहीं-बहनो घृणाकी चीज है, और इमलिये उसे इस लाटीसंहिताके का कवि राजमरज भारम्भके प्रकार-विषयघृणामक प्टिमे दंग्यता मा जो मैथुन कर्मसे अरुचि- में मौन हैं और प्राचार्य वसुनन्दीने एकमात्र 'गृहारम्भ' धारण करके उस विषयमं सदा विरत रहता है यह कह कर ही छुट्टी पानी है। ऐसी हालतमें 'प्रमुख' शब्दके 'प्रहाचारी' नामका सप्तम-प्रतिमा धारक श्रावक होता है। द्वारा नोमिक
द्वारा दूसरे किन पारम्भीका प्रहण यहाँ अन्धकार महोदय
i mm वस्तुनः कामांगको जिस टिम दंग्वनेका यहाँ उल्लेख को विचित रहा. यह एक विचारणीय विषय है।हो
वहबदा ही महत्वपूर्ण है । उस दृष्टिकी भास्माम सकता है कि उनमें शिल्प और पशुपालन जैसे प्रारम्भोंका जागृत और तदनुकल भावनात्रांमे भावित एवं पुष्ट करके भी समावेश हो; क्योंकि कथनक्रमको देखते हुए प्रायः जो प्राचारी बनता है वह बहाचर्य पदमें स्थिर रहना है, आजीविका-सम्बन्धी प्रारम्भ ही यहाँ विवचित जान पड़ते अन्यथा उस पर होनेकी संभावना बनी रहती है। मिलांके महारम्भका तो उनमें सहज ही समावेश हो सपा पारी स्व-परादिरूपमें किमी भी स्त्री का कभी जाता है और इसलिये वे हम प्रतधारीके लिए सर्वथा मेवन नहीं करता है । प्रन्युन इसके, महामें-शुद्धाश्मामें- त्याज्य ठहरते हैं। अपनी चर्याको बढ़ाकर अपने नामको सार्थक करता है। रही अब पंचमूनायोकी बात, जो कि गृहस्थ जीवनके सेवा-कृषि-वाणिज्य-प्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । अंग है, सूक्ष्मदृष्टिसे यद्यपि उनका समावेश भारम्भौम प्राणातिपातहेतोर्योऽसावारम्भ-विनिवृत्तः॥१४४ हो जाता है परन्तु इमी प्रन्यमें वैयावृत्यका वर्णन करते
'जो श्रावक एसी संवा और वाणिज्यादरूप हुए अप-मूनाऽऽरम्भाणामायाणामिप्यत दान' वाक्यम भारम्भ-प्रतिसे विरक्त होता है जो प्राणपीडकी प्रयुक्त हुए 'अपमूनारम्भारणां' पदमें मूनायोंको प्रारम्भोंसे हेतुभूत है घह 'आरम्भ-त्यागी' (८ पदका अधि
पृथक रूपमें ग्रहण किया है और इससे यह बात स्पष्ट कारी ।
जानी जानी है कि स्थूल दृष्टिम मूनाांका प्रारम्भोंमें ममाव्याख्या-यहाँ जिस पारम्भ विरकि धारण करने वेश नहीं है । तब यहां विवक्षित प्रारम्भोंमें उनका समाकी बात कही गई है उसके लिये दो विशेषण पदोंका प्रयोग वेश विवक्षित देया कि नहीं, यह बात भी विचारणीय हो किया गया है-क वा-कृषि-वाणिज्य प्रमुखा' और जाती है और इसका विचार विद्वानोंको समन्तभद्रकी दृष्टिदुसरा प्राणतिपात हवी। पहले विशेषणमें प्रारम्भके सही करना चाहिये । कपि राजमरनजीने इस प्रतिमाम कुछ प्रकारोंका उल्लेख है, जिनमें मंबा, कृषि और वाणिज्य
अपने तथा परके लिये की जाने वाली उप क्रियाका निषेध ये तीन प्रकार तां स्पष्ट रूपये उल्लेखित हैं. दूसरे और
किया। जिसमें लेगमात्र भी प्रारम्भ हो, परन्तु स्वयं कौनसे प्रकार हैं जिनका सं+न 'प्रमुम्ब' शटनके प्रयोग द्वारा
ये ही यह भी लिखने है कि वह अपने वस्त्रोंको स्वयं किया गया है, यह स्पष्ट है । टीकाकार प्रभाचन्द्रन भी
अपने हाथामे सुक जलानिके द्वारा धो सकता है क्या उसको स्पष्ट नहीं किया। चामुण्डरायने अपन चारिग्रसारम
किसी साधर्मासे धुला सकता हैx; ब क्या गुन्द्र अग्नि
जलसं कूकर मादिके द्वारा बह अपना भोजन भी स्वयं जहाँ इस ग्रन्थका बदुन कुछ शब्दशः अनुसत्या किया है वहाँ वे भी इसके स्पष्टीकरणकी छांट गए हैं। पंडित मन
प्रस्तुत नहीं कर सकता! पायाधरजीका भी अपने मागारबर्मामृतकी टीकामें ऐसा ही
दूसरा विशेषण प्रारम्भीके त्यागकी टिको लिए हाल 'अनुप्रेक्षा' पता स्वामी कार्तिकेय और हर
हुए है और इस बातको बतलाता है कि संवा-कृषि-वाणि
- ज्यादिक रूपमे जो प्रारम्भ यहाँ विवचित है उनमें ही . उन्होंने इतना ही जिम्बाई कि-"भारम्भविनिवृत्तिोंड
भारम्भ त्याश्य है जो प्राणघातके कारण है जो किसीके सिमसि-कृषि वाणिज्य प्रमुखादारम्भात् प्राणानिपातहेवोर्विरवो भवति ।" यहाँ सेवाको जगह असि, मसि ® "बहुप्रज्ञपितेनानमारमा बा परामने।
काँकी सूचना की गई है। शेष सबज्योंकायों। पत्रारम्भस्य शोजस्तनकुन्तामपि नियाम् ॥" x वे अपने 'कण्यादीन पदकी व्याख्या करते हुए लिखते : "प्रक्षालच वस्त्राणां प्रासुकेन जबादिना । है-'कृषि-मेवा-वाणिज्यारिण्यापारम्'
कुर्याद्वा स्वस्यहस्ताम्यां कारयेदा सर्मिना।"