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किरण १]
समन्तभद्र-वचनामृत
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उपवासके दिन जिन कार्योंके न करनेका तथा जिन खाद्य २ अन्नभिन दूसरे खानेके पदार्थ जैसे पेदा, बर्फी, कार्याक करनेका विधान इस ग्रन्थमें शिक्षावतोंका वर्णन लौजात, पाक, मेवा, फल, मुरब्बा इलायची, पान, सुपारी करते हुए किया गया है उनका वह विधि-निषेध यहाँ आदि और लेह्य चटनी, शर्बत, रबड़ी भादि (इन चार भी प्रोषध-नियम-विधायी' पदके अंतर्गत समझना चाहिये। प्रकारके भोज्य पदार्थों ) को नहीं खाता है वह प्राणियों मूल-फल-शाक-शाखा-करीर-कन्द-प्रसून-बीजानि। में दयाभाव रखने वाला 'रात्रिभुक्तिविरत' नामके कुठे
पदका धारक श्रावक होता है।' नामानि योऽचिसोऽयं सचिनविरतो दयामूर्तिः१४१
व्याख्या-यहां 'सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः' पदका जो 'जो दयालु ( गृहस्थ) मून, फल, शाक, शाखा प्रयोग किया गया है वह इस व्रतके अनुष्ठानमें जीवों (कोपब) करीर गांठ-कैरों), कन्द, फूल और बीज, पर दयारष्टिका निर्देशक है; और 'सस्वेषु' पद विधिमा इनको कच्चे (अनग्नि पक्व भादि अमाशुक दशामें) किसी विशेषसके प्रयुक्त हुना है इसलिए उसमें अपने नहीं खाता वह 'सचित्तविरत' पदका-पांचवीं प्रतिमाका
जीवका भी समावेश होता है । रात्रिभोजनके स्वागसे धारक श्रावक होता है।
जहां दूसरे जीवोंकी अनुकम्पा बनती है वहां अपनी भी व्याख्या-यहाँ 'प्रामानि' और 'न पत्ति' ये दो पद अनुकम्पा सधनी है-रात्रिको भोजनकी तलाश में निकले खास तौरसे ध्यान में लेने योग्य हैं। 'प्रामानि पद हुए. अनेका विषले जन्तुओंके भोजनके माथ पेटमें चले अपक्य एवं अप्रामुक अर्थका योतक है और न अति जानेसे अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होकर शरीर तथा पद भक्षणके निषेधका वाचक है, और इसलिये वह मनकी शुद्धिको जो हानि पहुंचाते है उससे अपनी निषेध उन अप्रासुक (सचित्त) पदार्थोके एकमात्र भक्षण- रा होनी है। शेप इन्द्रियोका जो संयम बन पाता है से सम्बन्ध रखता है-स्पर्शनादिकसे नहीं -जिनका इस और उमसे श्राग्माका जो विकास सधता है उसकी तो बात कारिकामें उल्लेख है। वे पदार्थ वानस्पतिक है, जलादिक ही अलग है। इसीसे इस पदके पूर्व में बहुधा लोग प्रमादिनहीं और उनमें कन्द-मूल भी शामिल है। इससे यह स्पष्ट के त्यागरूपमें ग्बगडशः इस व्रतका अभ्यास करते है। जाना जाता है कि ग्रन्थकार महोदय स्वामी समन्तभद्रकी मलबीजं मलयोनि गलन्मलं पूतिगन्धि बीभत्सम् । दृष्टिमें यह भावकपद (प्रतिमा) अप्रासुक वनस्पतिक भक्षण-त्याग तक सीमित है, उसमें अप्रासुकको प्रासक पश्यन्नङ्गमनङ्गाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः॥१४३ करने और प्रासुक बनस्पतिके भक्षणका निषेध नहीं है। जो श्रावक शरीरको मलबीज-शुक्र शोणितादि'प्रातकस्य भक्षणे नो पाप:' इस उक्तिके अनुसार प्रासुक मलमय कारणोंमे उत्पन हुश्रा-मल योनि--मलका (अचित्त) के भक्षण में कोई पाप भी नहीं होता । अप्रा- उत्पत्तिस्थान-गलन्मल मलका झरना-दुर्गम्भ-युक्त सुक कैसे प्रासुक बनता अथवा किया जाता है इसका कुछ और बीभत्म-घृणास्मक-देवता हुआ कामसे-मथुन विशेष वर्णन ८५ वी कारिकाकी व्याख्यामें किया जा कर्मसे-विरक्ति धारण करता है वह ब्रह्मचारी पद (मात
वी प्रतिमा)का धारक होता है।' अन्नं पानं खाद्य लेद्य नाश्नाति यो विभावर्याम्। व्याख्या-यहाँ कामके जिस अंगके साथ रमणस च रात्रिभुक्तविरतः सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः।१४२
करके मंसारी जीव प्रारम-विस्मरण किये रहते है उसके
स्वरूपका अच्छा विश्लेषण करते हुए यह दर्शाया गया। 'जो श्रावक रात्रिके समय अन्नं-प्रम तथा प्रमा- कि वह अंग विवेकी पुरुषों के लिए रमने योग्य कोई वस्तु दिनिर्मित या विमिश्रित भोजन-पान-जल-दुग्ध-सादिक, -
२ खायके स्थान पर कहीं कहीं 'स्वाथ' पाठ मिलता भयेन सचित्तस्य नियमो न तु स्पर्शने ।
है जो समुचित प्रतीत नहीं होता । टीकाकार प्रभाषयने तत्स्वहस्वादिना कृत्वा प्रासुकं चाऽत्र भोजयेत् ॥
मी 'माय' पदका ग्रहण करके उसका अर्थ मोदकादि -लाटीसंहिता 0-10 किया है जिन्हें श्रमिक समझना चाहिए।