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भनेकान्त
[किरण
वक्षन-कायरूप तीनो योगोंके परावर्तनका सूचक है। और प्रत्येक मासके चारों ही पर्व-दिनोंमें प्रत्येक परावर्तन योगोंकी संयतावस्थाका घोतक शुभ व्यापार मष्टमी-चतुर्दशीको-जो श्रावक अपनी शक्तिको न कहलाता है, ऐसा पं० श्राशाधरजीने प्रकट किया है। द्विपाकर, शुभ ध्यानमें रत हा एकापताके साथ ऐसी हालत में 'मावर्तत्रिनय' पदका प्रयोग वन्दनीयके प्रोषधके नियमका विधान करता अथवा नियमसे प्रति भक्तिभावक चिन्हरूपमें तीन प्रदक्षिणामोंका प्रोषधोपवास धारण करता है वह 'ग्राषधोपवास' पदपोतक न होकर त्रियोगशुद्धिका घोतक है ऐसा फलित का धारक (चतुर्थ श्रावक) होता है। होता है। परन्तु 'त्रियोगशुद्धः' पद तो इस कारिकामे व्याख्या-द्वितीय 'प्रतिक' पदमें प्रोषधोपवासका अजगमे पड़ा हुआ है, फिर दोबारा त्रियोगशुद्धिका द्योतन निरतिचार विधान पा गया है तब उसीको पुनः एक अलग वैसा? इस प्रश्नके समाधान रूपमें कुछ विद्वानोंका कहना पद (प्रतिमा) के रूप में यहाँ रखना क्या अर्थ रखता है? है कि "प्रावतंत्रितय में निहित मन-वचन काय-शुद्धि यह एक प्रश्न है। इसका समाधान इतना ही है कि प्रथम कृतिकर्मकी अपेक्षा है और यहाँ जो त्रियोग-शुद्धः पदसे तो व्रत-प्रतिमामें ऐसा कोई नियम नहीं है कि प्रत्येक मासमन-वचन-कायको शुद्धिका उल्लेख किया है वह सामायिक की अष्टमी-चतुर्दशीको यह उपवास किया ही आवे-वह की अपेक्षासे है। परन्तु कृतिकर्म (कर्मवेदनांपाय) तो वहाँ किसी महीने में अथवा किसी महीनेके किसी पर्व दिनसामायिकका अंग है और उस अंगमें द्वादशावतसे भित्र में स्वेच्छासे नहीं भी किया जा सकता है। परन्तु इस पदत्रियोगशुद्धिको अलगसे गिनाया गया है। तब 'नियोग- में स्थित होने पर, शक्तिके रहते, प्रत्येक महीनेके चारों ही शुद्धः पदके वाथ्यको उसमे अलग कम किया जा सकता पर्वदिनों में नियमसे उसे करना होता है-केवल शक्तिका है? यह एक समस्या खड़ी होती है। अम्नु ।
वास्तविक प्रभाव ही उसके न करने अथवा अधूरे रूपसे 'यथाजातः' पद भी यहां विचारणीय है । श्राम तौर करनेमे यहाँ एकमात्र कारण हो सकता है। दूसरे वहाँ पर जैन परिभाषाके अनुसार इसका अर्थ जम्म-समयको (दूसरी प्रतिमामें) वह शीलके रूपमें-अणुवतोंकी रषिका अवस्था-जैसा नग्न-दिगम्बर होता है। परन्तु श्राचार्य परिधि (बाड़) की अवस्थामें-स्थितऔर यहाँ एक प्रभाचन्द्रने टीकामें 'बाद्याभ्यन्तरपरिप्रहचिन्ताव्यावृत्तः स्वतन्त्र व्रतके रूपमें ( स्वयं शस्य के समान रमणीयपदके द्वारा इसका 'बाह्य तथा अभ्यंतर दोनों प्रकार स्थितिमें) परिगणित है । यही दोनों स्थानोंका अन्तर है। के परिग्रहोंकी चिन्तासे विमुक्त' बतलाया है और पाजकल .. कवि राजमालजीने 'लाटीसंहिता' में अन्तरकी प्रायः इसीके अनुसार व्यवहार चल रहा है। परिस्थिति- जो एक बात यह कही है कि दूसरी प्रतिमामें यह व्रत साति वश पं० श्राशाधरजीने भी इसी अर्थको प्रहण किया है। चार है और यहाँ निरतिचार है ('सातिचारं च तत्र
इस सामायिक पदमें, सामायिक शिक्षाप्रतका वह सब स्यादत्राऽतीचार वर्मितं) वह स्वामी समन्तभद्रकी दृष्टिसे श्राचार शामिल है जो पहले इस ग्रन्थमे बतलाया गया कुछ संगत मालूम नहीं होती; क्योंकि उन्होंने दूसरी प्रतिहै। वहां वह शीलके रूप में है तो यहाँ उसे स्वतन्त्र प्रतके मामें निरांतक्रमणं' पदको अलगसे 'अणुवतपयक' और रूपमं व्यवस्थित समझना चाहिए।
'शोलसप्तक' इन दोनों पदोंके विशेषण रूपमें रक्खा है पर्वदिनेषु चतुर्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगुष ।
और उसके द्वारा अणुव्रतोंकी तरह सप्तशीलोंको भी निरति
चार बतलाया है। यदि व्रतप्रतिमामें शीलवत निरतिचार प्रोषध-नियम-विधायीप्रणधिपर:प्रोषधाऽनशनः१४०
नहीं है तो फिर देशावकाशिक, बैय्यावृत्य और गुणवतों 1. कथिता दावशावर्ता वपुर्वचनचेतसा ।
की भी निरविचारता कहाँ जाकर सिद्ध होगी? कोई भी स्तव-सामायिकान्तपरावर्तनजक्षणा -अमितगतिः पद (प्रतिमा) उनके विधानको लिए हुए नहीं है। शुभयोग-परावर्तानावान् दावशाधन्ते।
प्राशाधरजीने भी प्रतिमामें बारह व्रतोंको निरतिचार साम्यस्य हि स्तवस्य च मनोजगीः संवतं परावय॑म ॥ प्रतिपादन किया है। ३. द्विनिषण्णं यथाजा द्वादशावर्तमित्यपि ।
१. यथा-'धारयन्नुत्तरगुणावणान्प्रतिको भवेत् ।' चतुर्नति विश्वं कृतिकम प्रयोजयेत् ॥-चारित्रसारः टीमणान् निरतिचारान् ।