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समन्तभद्र-वचनामृत
व्रतोंके लिए मंयुक्त एक संज्ञा 'शोल' है और सप्तक शब्द तीनों योगोंको शुद्धि पूर्वक तीनों सध्याओं (पूर्वान्ह, उन व्रतोंकी मिली हुई संख्याका सूचक है। तस्वार्थसूत्र में मध्यान्ह, अपरान्ह) के समय वन्दना-क्रिया करता है वह भी 'व्रत-शीलेषु पंच पंच ययाक्रम' इस सूत्रके द्वारा इन 'सायिक' नामका--ततोयप्रतिमाधारी-श्रावक है।' सातों वतीको 'शोल' संज्ञा दी गई है। इन सप्तशील व्रता व्याख्या-यहाँ भागम-विहित कुछ समयाचारका और पंच अणुवताको जिनका अतीचार-सहित वर्णन इस सांकेतिक रूपले उल्लेख है, जो प्रावता, प्रणामों, कायोअन्यमें है पहले किया जा चुका है,यह द्वितीय श्रावक निरति- मर्गों तथा उपवेशना श्रादिल संबद्ध है, जिनकी ठीक विधि चाररूपसे धारण-पालन करता है। इन बारह व्रतो और व्यवस्था विशेषज्ञोके द्वारा हो जानी जा सकती है। श्रीउनके साठ भतीचाराका विशेष वर्णन इस प्रन्धमे पहले प्रभाचन्द्राचार्यने टीकामे जो कुछ मूचित किया है उसका किया जा चुका है, उसको फिरम यहां देनेकी जरूरत मार इतना ही है कि एक एक कार्योत्सर्गके विधानमें जो नहीं है। यहां पर इतना ही समझ लेना चाहिये कि इस 'णमा अरहन्तागणं' इत्यादि सामायिक • दण्डक और पद (प्रतिमा) के पूर्व में जिन बारह बनोका सातिचार- 'थाम्सामि' इत्यादि स्नव-दराडककी व्यवस्था है उन दोनांके निरतिचारादिके यथेच्छ रूपम खण्डशः अनुष्ठान या आदि और शन्तमें तीन तीन श्रावके साथ एक एक अभ्यास चना करता है वे इस परम पूर्णताको प्राप्त होकर प्रणाम किया जाता है, इस तरह बारह श्रावर्त और चार सुव्यवस्थित होते हैं।
प्रणाम करने होते हैं। माथ ही, देववन्दनाके भादि तथा ___यहां 'निःशल्यो' पद खास तौरस ध्यान में लेने योग्य
अन्त में जो दो उपपेशन क्रियाएँ की जाती है उनमें एक है और इस बातको सूचित करता है कि प्रतिककेलिये नमस्कार प्रारम्भ की क्रियाम और दूसरा अन्तकी क्रियाम निःशक्य होना अत्यन्त आवश्यक है । जो शल्परहित नही
बैठकर किया जाता है। इस २० श्राशाधरजीने मतभेदके वह व्रती नहीं-व्रतोंके वास्तविक फलका उपभोक्ता नहीं हो रूपम उल्लाखत करन हुए यह प्रकट किया कि स्वामी सकता । तत्वार्थसत्र में भी निःशल्यो व्रती सनद्वारा समन्तभद्रादिके मतसे वन्दनाकी आदि और समाप्तिके इन ऐसा ही भाव व्यक्त किया गया है। शल्य तीन हैं-माया, दो अवसरों पर दो प्रणाम बैठ कर किये जाते हैं और इसके मिथ्या और निदान । 'माया' बंचना एवं कपटाचारको लिये प्रभाचन्द्रकी टीकाका प्राधार व्यक्त किया है. इस कहते हैं, 'मिथ्या' रष्टिविकार अथवा तत्तविषयक तत्व
मरह यह जाना जाता है कि चारी दिशाग्रीमें तीन तीन श्रद्धाके अभावका नाम है और 'निदान' भावी भागांकी भावोंके माय एक एक प्रणामकी जो प्रथा भाजकल श्राकांक्षाका चानक ये तीनों शल्यकी तरह चभने वाली प्रचलित है वह स्वामि समभद्र-सम्मत नहीं है। तथा बाधा करने वाली चीज है, इसीये इनकी 'शल्य दोनों हाथोंगे मुकलिन करके-कमल कलिकादिके कहा गया है। बतानुष्ठान करने वालंकी इन तीनोम ही- रूपम स्थापन करक-जा उन्त प्रदक्षिणाक रूपम तान रहित होना चाहिए। तभो उसका बतानुष्ठान मार्थक ही बार घुमाना है उसे श्रावनेत्रितय (तीन बार प्रावते सकता है। केवल हिमादिकके त्यागसे ही कोई व्रती नहीं करना) कहते हैं। यह प्रावर्तप्रितयकर्म, जो वन्दनाबन सकता, यदि उपके साथ मायादि शक्य लगी हुई हैं। मुद्रामे कुहनियाको उदर पर रख कर किया जाता है, मन चतुरावर्त-त्रितयश्चतुःप्रणामः स्थितो यथाजातः। 'मतान्तर माह-मत इष्ट, के हुनती। के कैश्चित
स्वामिसमन्तभद्रादिभिः। कस्मात्रमनात् प्रणमनात् । सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसंध्यमभिवन्दी किं कृत्वा ? निवश्य उपविश्य । कयोः । बन्दना
जो श्रावक (पागम विहित समयाचारके अनुसार) चन्तयांवन्दनायाः प्रारम्भे समाती च । यथास्तत्र तीन तीन श्रावतोंके चार बार किये जानकी, चार भगवन्तः श्रीमह भेन्दुदेवपादा रस्नकरयशक-टीकार्या प्रणामांकी. उर्व कायोत्सर्गी तथा दो निपद्याश्री (उप- 'चतुरावतंग्रिनय' इत्यादिसूत्रे द्विनिषय इत्यस्य वेशनों) की व्यवस्थासे व्यवस्थित और यथाजातरूपमें व्याख्याने 'देववन्दनां कुर्वना हि प्रारम्भे समाप्तौ चोप-दिगम्बरवेषमें अथवा बाह्याभ्यन्तर-परिग्रहकी चिन्तासे विश्य प्रणामः कर्तब्य इनि'। विनिवृत्तिको अवस्थामें स्थित हुआ मन-वचन-क यरूप
-नगारधर्मामृत टीका पु.५००।