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________________ अनेकान्त [किरण १ - व्याख्या-जिस सम्यग्दर्शनकी शुद्धिका यहाँ उल्लेख इसी ग्रन्थके तृतीय अध्ययनमें प्रयुक्त हुए 'रागद्वेषनिवृत्य है वह प्रायः उसी रूपमें यहाँ विक्षित है जिस रूपमें उसका चरणं प्रतिपद्यते साधुः' 'सकलं विकलं चरणं' और वर्णन इस प्रन्यके प्रथम अध्ययनमें किया गया है और 'अणु-गुण-शिक्षा-वनात्मकं चरण इन वाक्योंके प्रयोगसे इसलिए उसकी पुनरावृत्ति करने की जरूरत नहीं है। पूर्व- जाना जाता है। प्राचार दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और कारिकामें यह कहा गया है कि प्रत्येक पदके गुरु अपने वीर्य ऐसे पांच प्रकारका प्राचार शामिल है अपने अपने पूर्वगुणोंको साथमें लिये तिष्ठते हैं। इस पदसे पूर्व श्रावक- प्राचार-विशेषांके कारण ही ये पंचगुरु हमारे पूज्य और का कोई पद है नहीं, तब इस पदसे पूर्वके गुण कौनसे ? शरण्य है अतः इन पंचगुरुओंके प्राचारको अपनानावे गुण चतुर्थ-गुरुस्थानवर्ती 'अव्रतसम्यग्दृष्टि' के गुण हैं, उसे यथाशक्ति अपने जीवनका लक्ष्य बनाना ही वस्तुतः उन्हींका चोतन करनेके लिये प्रारम्भमें ही 'सम्यग्दर्शन- पंच गुरुत्रांकी शरण में प्राप्त होना है। पदोका आश्रय तो शुद्धः' इस पदका प्रयोग किया गया है। जो मनुष्य मम्य- सदा और सर्वत्र मिलता भी नहीं, प्राचारका अाश्रय, शरण्यग्दर्शनसे युक्त होता है उसकी रष्टिमे विकार न रहनेसे के सम्मुख मौजून न होते हुए भी, मदा और सर्वत्र लिया वह संसारको, शरीरको और भोगोंको उनके यथार्थ रूपमें जा सकता है। अतः चरणके दूसरे अर्थकी दृष्टिसं पंच देखता है और जो उन्हें यथार्थ रूपमें देखता है वही उनमें गुरुओंकी शरणमें प्राप्त होना अधिक महत्व रखता भासकिन रखनेके भावको अपना सकता है। उसी भाव है। जो जिन-चरणकी शरणमें प्राप्त होता है उसके लिये को अपनानेका यहाँ इस प्रथम पदधारी श्रावकके लिये मद्य-मांसादिक वर्जनीय हो जाते हैं; जैसा कि इसी ग्रन्थम विधान है। उसका यह अर्थ नहीं है कि वह एक दम अन्यत्र (का०५४) ............ मयंच वर्जनीयं जिनसंसार देह तथा भोगोंसे विरक्ति धारण करके वैरागी बन चरणो शरणमुपयातैः' इस वाक्यके द्वारा व्यक्त किया जाय, बक्कि यह अर्थ है कि वह उनसे सब प्रकारका सम्पर्क गया है। रखता और उन्हें सेवन करता हुश्रा भी उनमें आसक्त न इस पदधारीक लिये प्रयुक्त हुआ 'तत्त्वपथगृह्यः' होवे-सदा ही अनासक्त रहनेका प्रयत्न तथा अभ्यास विशेषण और भी महत्वपूर्ण है और वह इस बातको करता रहे। इसके लिये वह समय समय पर अनेक नियमों सूचित करता है कि यह श्रावक सन्मार्गकी अथवा को ग्रहण कर लेता है, उन बारह व्रतामे से भी किसी अनेकान्त और अहिंसा दोनोंकी पक्षको लिये हुए होता किसीका अथवा सबका खण्डशः अभ्यास करना है जिनका है। ये दोनों ही सन्मार्गके अथवा जिनशासनके दो निरतिचार पालन उसे अगले पदम करता है और इसतरह वह अपनी प्रात्मशक्तिको विकसित तथा स्थिर करनेका कुछ उपाय इस पदमें प्रारम्भ कर देता है। दूसरे शब्दामें निरतिक्रमणमणुव्रत-पंचकमपि शीलसप्तकः चाऽपि यो कहिये कि वह नियमित रूपसे मांसादिके त्यागरूपमें धारयते निःशल्योयोऽसौ वतिनां मतो व्रतिकः॥१३८ मसगुणांका धारण-पालन शुरू कर देता है जिनका कथन 'जो श्रावक निःशल्य मिथ्या, माया, और निदान इस ग्रन्थमें पहले किया जा चुका है और यह सब 'संमार नगर नामकी तीनों शल्योंसे रहित) हुश्रा विना अतीचारके शरीर-भोग-निविण्णः' और 'पंच गुरु चरण-शरणः' इन पांचों अणवतो आर साथ ही सात! शीलव्रतांका दोनों पदोंके प्रयोगसे साफ ध्यानत होता है। पंच गुरुग्राम भा धारण करता है यह व्रतियों-गणधरादिक देवों के महंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच द्वारा व्रतीक पदका धारक (द्वितीय भावक) माना भागमविहित परमेष्ठियांका अर्थात् धर्म गुरुमका समा गया है।' वेश है-माता-पितादिक लौकिक गुरुवांका नहीं। चरण' व्याख्या-यहां 'शोलसप्तक' पदके द्वारा तीन गुणशब्द पामतौर पर पदों-पैरोका वाचक है, पद शरीरके निम्न (नीचेके) भंग होते हैं, उनकी शरणमें प्रास होना प्रतों और चार शिक्षाप्रतोंका प्रहण है-दोनों प्रकारके शरण्यके प्रति प्रति विनय तथा विनम्रताके भावका घोतक दसण-णाण-चरिते तम्वे विरियाचारम्हि पंचविहे । है। चरणका दूसरा प्रसिद्ध अर्थ 'माचार' भीद, जैसा कि -मूलाचार५-२
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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