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समन्तभद्र-वचनामृत
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(श्रावक-पद) श्रावक-पदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु। । यहाँ पर एक बात खासतौरसे ध्यानमें रखने योग्य है स्वगणाः पूर्वगुणैः सह संतिष्ठन्ते क्रमविद्धाः।।१३६ विवृद्धिको लिये हुए है अर्थात् एक पद अपने उस पदके
और वह यह कि ये पद अथवा गुणस्थान गुणोंको कम'श्रीतीर्थकरदेवने-भगवानवर्तुमानने-श्रावकोंके गुणोंके साथमें अपने पूर्ववर्ती पद या पदोंके सभी गुणोंको पद-प्रतिमारूप गुणस्थान--ग्यारह बतलाए हैं, जिनमें साथमें लिए रहता है-ऐसा नहीं कि 'भागे दौड़ पीने अपने-अपने गुणस्थानके गुण पूर्वके सम्पूर्ण गुणोंके चौड़' की नीतिको अपनाते हुए पूर्ववर्ती पद या पदोंके साथ क्रम-विशुद्ध होकर तिष्ठते हैं-उत्तरवर्ती गुण- गुणोंमें उपेश धारण की जाय, वे सब उत्तरवर्ती पदके स्थानों में पूर्ववर्ती गुणास्थानोंके सभी गुणोंका होना अनि- अंगभूत होते हैं-उनके विना उत्तरवर्ती पद अपूर्ण होता वार्य लाजिमी) है, तभी उस पद गुणस्थान अथवा है और इसलिये पदवृद्धिके साथ भागे कदम बढ़ाते हुए प्रतिमाके स्वरूपकी पूर्ति होती है।'
वे पूर्वगुण किसी तरह भी उपेक्षणीय नहीं होते-उनके
विषयमें जो सावधानी पूर्ववर्ती पद या पदोंमें रक्खी जाती व्याख्या--जो श्रावक-श्रेणियाँ आमतौर पर 'प्रतिमा' थी वही उत्तरवर्ती पद या पदोंमें भी रक्खी जानी के नामसे उल्लखित मिलती हैं उन्हें यहाँ 'श्रावकपदानि । पदके प्रयोग-द्वारा खासतौरसे 'श्रावकपद' के नामसे उल्लेखित किया गया है और यह पद-प्रयोग अपने विषयकी सुप्पष्टताका द्योतक है। श्रावकके इन पदोंकी भागमविहित मूल संख्या ग्यारह है-सारे श्रावक ग्यारह व में पंचगुरु चरण-शरणः दर्शनिकस्तत्वपथगृपः॥१३७ विभक्त है। ये दर्जे गुणोंकी अपेक्षा लिये हुए है और इस जो सम्यग्दर्शनसे शुद्ध है अथवा निरतिचार लिये इन्हें श्रावकीय-गुणस्थान भी कहते हैं। दूसरे शब्दोंमें सम्यग्दर्शनका धारक है, संसारसे शरीरसे तथा भोगों यांकहना चाहिये कि चौदह सुप्रसिद्ध गुणस्थानोंमें श्रावकों से विरक्त है-उनमे प्रातक्ति नहीं रखता, पंचगुरुओंक से सम्बन्ध रखनेवाला 'देशसंयत' नामका जो पाचवां गुण- चरणोंकी शरणमं प्राप्त है-अर्हन्तादि पंचपरमेष्ठियाँके स्थान है उसीके ये सब उपभेद हैं। और इसलिये ये एक- पदों पद-वाक्यों अथवा प्राचारोंको अपाय-परिरक्षकके रूपम मात्र सल्लेखनाके भनुष्ठातासे सम्बन्ध नहीं रखते। अपना आश्रयभूत समझता हुआ उनका भक्त बना हुमा सरनेम्वनाका अनुष्ठाव तो प्रत्येक पदमें स्थित श्रावकके लिए है और जो तत्त्वपथकी ओर आकर्षित है-सम्यग्दविहित है, जैसा कि चारित्रसार के निम्नवाक्यसे भी जाना नादिरूप सम्माकी अथवा तस्वरूप अनेकान्त और जाता है
मार्गरूप अहिंसा' दोनोंकी पक्षको लिए हुए है-वह "उक्त रुपासकारणान्ति की सस्नेखना प्रीत्या सेव्या" 'दशनिक' नामका (प्रथमपद या प्रतिमा-धारक) -- - - - -
श्रावक है।' इस सम्बन्धकी बातको टीकाकार प्रमाचन्द्रने अपने निम्न प्रस्तावना-वाक्यके द्वारा व्यक्त किया है
+ "तत्वं वनेकान्तमशेषरूपं" (युक्स्पनुशासन) ___ “साम्प्रतं योऽसौ सालेखनाऽनुष्ठाता तस्य कतिप्रतिमा "एकान्तदृष्टिप्रतिधितस्वं" (स्वयम्भूस्तोत्र) भवन्तीपाशंक्याह-"
-इति समन्तभद्रः