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________________ किरण ५] कुरलका महत्व और जैनकर्तृत्व बतलाये है उनसे अधिक सूचमवात भीष्म या कौटिल्य कि 'इसमें संदेह नहीं कि ईसाई धर्मका कुरखकर्ता पर सबसे कामन्दक या रामदास विष्णुशर्मा या माई.के. वेलीने अधिक प्रभाव पाया।कुरखकी रचना इतनी उस्कृट नहीं भी नहीं कही है। व्यवहारका जो चातुर्य इसने बतलाया हो सकती थी पदि उन्होंने सेन्टटामससे मलयपुरमें ईसाके है और प्रेमीका हृदय और उसकी नानाविधिनियों पर उपदेशोंको न सुना होता।' इस प्रकार भिन्न भिन्न सम्प्रजो प्रकाश इसने डाला है उससे अधिक पवा कालिदास दाय वाले कुरनको अपना अपना बनानेके लिए परस्पर या शेक्सपियरको भी नहीं था।' होब लगा रहे हैं। श्रीराजगोपालाचार्यका अ.भमत-'तामिल जाति इन सबके बीच जैन कहते है कि 'यह तो जैन ग्रन्थ की अन्तरात्मा और उसके संस्कारोंक' ठीक तरहसे सम है, सारा अन्य "अहिंसा परमोधर्मः"को व्याख्या और कनेके लिये 'निक्कुरल का पढ़ना आवश्यक है। इतना इसके कर्ता श्री एनाचार्य हैं, जिनका कि अपरनाम कुन्। ही नहीं यदि कोई चाहे क भारतके समस्त साहित्यका कुन्दाचार्य है। मुझे पूर्णरू.से ज्ञान हो जाय तो त्रिकुरनको बिना पढ़े शैव और वैष्यवधर्मकी साधारण जनतामें यह भी हुए उसका अभीष्ट सिद्ध नहीं हो सकता। लोकमत प्रचलित है कि करलके कर्ता अछूत जातिके एक विक्कुरल, विवेक शुभसंस्कार और मानव प्रकृतिके जुलाहे थे। जैन खोग इस पर आपत्ति करते है कि नहीं, व्यवहारिक ज्ञानकी खान है। इस अद्भुत ग्रन्थकी सबसे वे क्षत्री और राजवंशज है। जैनांके इस कथनसे वर्तमान बड़ी विशेषता और चमत्कार यह है कि इसमें मानवचरित्र युगके निष्पक्ष तथा अधिकारी शामिल-भाषा विशेषज्ञ सहऔर उसको दुर्बलताओंकी तह तक विचार करके उच्च मत है। श्रीयुत् राजाजी राजगोपालाचार्य तामिक्षवेदकी प्राध्यात्मिकताका प्रतिपादन किया गया है । विचारके प्रस्तावनामें बिखते है कि कुछ लोगोंका कथन है कि सचेत और संयत भौदार्यके लिए त्रिकरलका भाव एक कुरलके कर्मा अछूत थे, पर प्रन्यके किसी भी मंशसे या ऐसा उदाहरण है कि जो बहुत काल तक अबुपम बना उसके उदाहरण देने वाले अन्य अन्य लेखकोंके सेखोंसे रहेगा । कलाकी दृष्टिसे भी संसारक साहित्यमे इसका इसका कुछ भी प्राभास नहीं मिलता। और हमारी राय. में बुद्धि कहती हैं किसी स्थान ऊँचा है, क्योंकि यह ध्वनि काम्य है, उपमाएँ और एक वामिल भाषाका ज्ञाता मकृत कुरजको नहीं बना सकता, कारण कुरखमें वामिन दृष्टान्त बहुत ही समुचित रक्खे गए है और इसकी शैली प्रांतीय विचारोंका ही समावेश नहीं है किन्तु सारे भारतीय विचारांका दोहन है। इसका अर्थशास्त्र-सम्बन्धी ज्ञानकुरलका कत्त्व कौटिलीय अर्थशास्त्रकी कोटिका है। इस प्रन्यका रचयिता भारतीय प्राचीनतम पदतिके अनुसार यहाँ प्रस्थ निःसन्दह बहुश्रत और बहुभाषा-विज्ञ होना चाहिए. का प्रन्थमें कहीं भी अपना नाम नहीं लिखते थे । कारण, जैसे एलाचार्य थे। उनके हृदय में कीतिलालसा नहीं थी किन्तु लोकहितको तामिल भाषांक कुछ समर्थ मजैन खेलकोंकी यह भी भावना ही काम करती थी। इस पद्धति के अनुसार लिखे राय है कि 'कुरलके कर्ताका वास्तविक परिचय अब तक लाये ग्रंथोंके कर्तृत्व-विषयम कभी कभी कितना ही मतभेद हम लोगोंको अज्ञात है, उसके कर्ता विवरजवरका यह विमा हो जाता है और उसका प्रत्यक्ष एक उदाहरण कल्पित नाम भी संदिग्ध है। उनको जीवन घडना ऐतिकुरलकाम्य है। कुछ लोग कहते हैं कि इसके कर्ता हासिक तथा वैज्ञानिक तथ्योंसे अपरिपूर्ण है। "तिमवल्लवर' थे और कुछ लोग यह कहते है किसके अन्त:साचीका एलाचार्य थे। अतः हम इन कल्पित दन्तकथाओंका माधार बोरकर इसी प्रकार कुरजकर्ताक धर्म सम्बन्धमे भी मतभेद अन्धकी अतः साक्षी और प्रास ऐतिहासिक उदाहरणोंको है शैव लोग कहते है कि यह शैवधर्मका ग्रन्थ है और लेकर विचार करेंगे, जिससे यथार्थसत्यकी खोज हो सके। वैष्णव लोग हम वैसवधर्मका ग्रन्थ बतलाते हैं। इसके जो भी निष्पा विद्वान इस मंथका ममताके साथ परीअंग्रेजी अनुवादक डा. पोपने तो यहाँ तक लिख दिया है पण करेगा उसे यह बात पूर्णत: स्पट हुए बिना नहीं
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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