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________________ करण हिन्दी जैन-साहित्य में तत्वज्ञान [२२५ दापजोने अपन नाटसमयसारमें ऐसे व्यक्तिकी अवस्था- कबहूँ फारै, कबहूँ जोये, कबहूँ खोसे. कबहूँ नया पहिरावे का वर्णन करते हुए कहा है इत्यादि चरित्र करे । बहबाढला तिसकों अपने बाधीन 'जैसे कोर कुकर शुधित सूके हाद चावे, मान वाकी पराधीन क्रिया हो खाते महा खेद खिल होष हानिकी कोर चहुँ ओर चुभै मुखमें। तैसें इस जीवकों कर्मोदय- शरीर सम्बन्ध कराया । यह गाव तालु रसना मसूदनिको मांस फाटे, जीव तिस शरीरकों एक मा, सौ शरीर कर्मक बाधीन, चाटै निज रूधिर मगन स्वाद-सुखमें । कबहूँ कृश होय कबहूँ स्थूल होय, कबहूँ नष्ट होय, कई तेसैं मूढ़ विषयी पुरुष रति रीति ठाने, नवीन निपजै इत्यादि चरित्र होव। यह जीव तिसकों तामै चित्त साने हित मानै खेद दुःखमें । अपने प्राधीन जाने वाकी पराधीन क्रिया होय ताते महा देखे परतच्छ बल-हानि मल-मूत खानि, खंद खिन्न होय है।' गहे न गिनानि रहे राग रंग रुखमें ॥३०॥ इस माह के फन्देमें फंसा हुमा प्रभागा जीव अपने पंडित दोपचन्दजो शाहने भी अपने 'अनुभवप्रकाश । भविष्यका कुछ भी ध्यान न रख इन्द्रियोंके आदेशानुसार प्रवंतन करता हैमें ऐसे व्यक्किके लिये इसीसे समता रखते हुए भाव प्रकट 'कायासे विचारि प्रीति मायाहीमें हार जीत ___"जैसे स्वान हादको चावै, अपन गाल, तालु मसूढेका लिये हठ, रीति जैसे हारिलकी लकरी। रक्त उतरे, ताकौं जानै भला स्वाद है। ऐसे मूढ़ भाप चंगुलके जारि जैसे गोह गहि रहे भूमि, दुःखमें सुख कर है । परफंदमें सुखकन्द सुखमाने । स्यों ही पाय गाडे पै न छांडे टेक पकरी ॥ अग्निकी माल शरीरमें लागै, तब कहै हमारी ज्योतिका मोहकी मरोरसों भरमको न और पावै, प्रवेश होय है। जो कोई अग्नि मालक बुकावे तामों धावै चहुँ ओर ज्यों बढ़ावै जान मकरी। जरै । ऐसें परमैं दुःख संयोग, परका बुझावै, तासौ शत्रकी ऐसी दुरबुद्धि भूलि झूठके झरोखे मूलि, सी रष्टि देखै । कोप करें। इस पर-गोगमें भोगु मानि फूली फिरै ममता जंजीरनसों जकरी ॥३७॥। भूल्या, भावना स्वरसकी याद न करै । चौरासीमें परवस्तु विशेषतः बंधके पांच कारण हैं-1. मिथ्यात्व, कौ पापा माने, ताते चोर चिरकाबका भया। जन्मादि २. अविरति, ३. प्रमाद, ४. कषाय, तथा ५. योग । दुख-दबह पाये तोहू, चोरो परवस्तुकी न छूट है। देखो! मिथ्यात्व-अपनो पास्माका और उससे सम्बन्धित देखा भूखि तिहुँ लोकका नाथ नीच परकै भाधीन भया । अन्य पदार्थों का भी यथार्थ रूपसे प्रदान न करने, या अपनी भूलिते अपनी निधि न पिलाने । भिखारी भया विपरीत श्रदान करनेको मिथ्यात्व कहते हैं। उसमें फंसे डाले है निधि चेतना है सो पाप है।दरि नाही. देखना हुये प्राणीको वस्तुक यथार्थ स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती। दुर्लभ है। देखें सुलभ है ॥४०,४॥ अविरति-दोष रूप प्रवृत्तिको अविरति कहते हैं। 'मोक्षमार्गप्रकाशमें' पण्डित टोडरमल्लजीने मोहमे अथवा हो अथवा षट् कायक जीवोंकी रक्षा करनेका नाम अविरति है। अविरतिके १२ भेद है। उत्पन्न दुःखका निम्नलिखित रूपसे वर्णन किया है प्रमाद अपनी अनवधानता या असावधानीको कहते 'बहुरि मोहका उदय है सो दुःख रूप ही है। कैसैं , है। उत्तमक्षमा, मार्दव, मार्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, सोकहिये है: त्याग, पाकिंचन, और ब्रह्मचर्य पालनमें चारित्र, गलियां, 'प्रथम तो दर्शनमोहके उदयतें मिथ्यादर्शन हो है समितियां इत्यादि पाध्यात्मिक प्रवृत्तियोंके समाचरण ताकरि जैसे या महान है तैसे तो पदार्थ है नाहीं जैसे करने में जो वस्तुयें बाधायें उपस्थित करती है वे प्रमाद पदार्थ है तैसे यह मान नाही, वाते याके पाकुलता ही रहे। कहलाती है। प्रमादके साढ़े तीस हजार भेद है, पर मूत जैसे बाउलाको काहूने वस्त्र पहिराया, वह पाउला तिस। १५ भेद हैं, और चार कषाव, चार विकथा, पांच वस्त्रको अपना अंग जानि प्रापई पर शरीरकों एक इंद्रियां, निद्रा और स्नेहमाने। वह वस्त्र पहिरावने बालेके प्राचीन , सो वह कवाय-जो मामा को कषे अथवा दुख देउसे • अनुभव प्रकाश पू.१०-11 . ना. समयसार पू. xमोच. प्रकाशका ६५-७.
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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