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________________ २२४ ] अनेकान्त [किरण. डालता है। राग, द्वेष क्रोध और मानादि विभाव उत्पल चक्री ऊँच नीच धरे, भूप दियो मने कर, करता है। शान्त भाव व सच्चे विश्वाससे भ्रष्ट करता है। एई पाठ कर्म हरै सोई हमें तारे है। मोह मास्माका प्रबल शत्रु है। परपदार्थों में ममताका होना यह कर्मबन्ध चार भेदोंमे विभक्त है प्रकृतिवन्ध, मोह है। इसका जीतना सहज नहीं है । जो इसे जीत स्थितिबन्ध, प्रदेशबन्ध और अनुभागबन्ध । क्योंकि इन लेता है वही संसारमें महान एवं पूज्य बनता है। चारों भेदोंका मूल कारण कषाय और योग है। प्रकृति मायुकर्म-कर्म जीवोंको सरीरके अन्दर रोक और प्रदेश रूप भागोंका निर्माण योग प्रवृत्तिसे होता है कर रखता है। जैसे अवधि समाप्त होने तकबन्दीको और स्थिति तथा अनुभाग रूप अंशोंका निर्माण कषायसे कारागृहमें रक्खा जाता है और अवधि समाप्त होनेके होता है। प्रकृतिबन्ध-कर्म पुद्गलोंमें ज्ञानको भावृत पश्चात् उसे मुक्त कर दिया जाता है। करने अथवा ढकने, दर्शनको रोकने, सुख दुखका वेदन मामकर्म-यह कर्म जीवोंके शरीरकी चित्रकारकी कराने,मात्मस्वभावको विपरीत एवं अज्ञानी बनाने आदिवरह अनेक तरहकी अच्छी बुरी रचना करता है। और का जो स्वभाव बनता है वह सब प्रकृतिसे निष्पन्न होनेके मात्माके अमूर्तस्व गुणका घात करता है। कारण प्रकृतिबन्ध कहलाता है। स्थितिबन्ध -बनने वाले उप स्वाभावमें अमुक समय तक विनष्ट न होनेकी गोत्रक-यह कर्म प्रास्माका माननीय व निन्दनीय जो मर्यादा पुद्गल परमाणुओंमें उत्पन्न होती है उसे कुल में जन्म कराता है, तथा उसके प्रभावमे हम जगत में कालकी मर्यादा अथवा स्थितिबन्ध कहा जाता है। अनुऊंच व नीच कहे जाते हैं। वास्तवमें हमारा अच्छा बुरा भावबन्ध-जिस समय उन पुद्गल परमाणुभोंमें उक्त पाचारण ही ऊँचता नीचताका कारण है। हम अपने स्वभाव निर्माण होता है उसके साथ ही उनमें हीनाधिक भावोंसे जैसा आचरण करेंगे, उसीके परिपाक स्त्ररूप रूपमें फल दान देनेकी विशेषताओंका भी बन्ध होता है ऊँचा नीचा कुल प्राप्त करते हैं। उनका होना ही अनुभागबन्ध कहलाता है। प्रदेशबंधअन्तरायकर्म-चाहे हुए किसी भी कार्य में विघ्न कर्मरूप ग्रहण किये गये पुद्गल परमाणुनामें भिन्न भिन उपस्थित हो जाता है, इस कर्मके उदयसे हमारे कामों में- नाना स्वभाव रूप परिणत होने वाली उम कर्मराशिका दान, बाम, भोग, उपभोग और वीर्य बादि कार्योय अपने अपने स्वभावानुसार अमुक अमुक परि बाधा पहुँचाता है। इसके उदयसे जीवात्मा अपने अभि- माणमें अथवा प्रदेश रूप में बंट जाना प्रदेशबन्ध पो तषित कार्यों को समय पर करने में समर्थ नहीं होता है। कमाता है। इन कोंके द्वारा प्रारमा सदा परतन्त्र और बंधन कोंकी इन आठमुल प्रकृतियोंको दो भागों अथवा युत रहता है। और इन कर्मों के सर्वथा क्षय हा भेदों में बांटा जाता है-१. घातिया २. अवातिया । जाने पर पारमा भव-बन्धनसे मुक्त हो जाता है-परब्रह्म जानावरणीय, दर्शनावरणीय मोहनीय, और अन्तराय परमात्मा हो जाता है। और अनन्तकाल तक वह अपने कामको धातियाकर्म कहते हैं, क्योंकि ये चारों ही कर्म कि मुखमें मग्न रहता है और वहांस कभी भी फिर प्रारमा निज स्वभावको विगाड़ते है-उमे प्रगट नहीं वापिस नहीं पाता। कविवर द्यानतरायजीने प्रष्ट कमौके होने देते। वेदनीय, नाम, गोत्र, और प्रायु इन चार स्वरूपका कथन करते हुए उनके रहस्यको पाठ प्रान्तों कर्मीको अधातिया कर्म कहते हैं, क्योंकि ये जीवके निज द्वारा व्यक्त किया है स्वभावको घातियाकी तरह बिगाइते तो नहीं हैं किन्तु देवप परयो है पट रूपको न ज्ञान होग उनमें विकृति होनेके वाघ माधनोंको मिलाने में निमित्त जैसे बरवान भूप देखनो निवार है। होते हैं। इन मष्टकों में मोहनीय कर्म अत्यन्त प्रबल है बहद बपेटी असि धारा सुख दुक्खकार, और भास्माका शत्रु है। इसके द्वारा अन्य धातिया काम मदिराज्यों जीवनको मोहनी विथार है। शक्तिका संचार होता है। इन्द्रियाँ विषयोंकी और विशेष काठमें दियो है पांव करे थिति को सुभाव, रूपसे प्रवृत्त होती हैं। यह जीव इन विषयोंसे निरत रह चित्रकार नाना भांति चीतके सम्हार है। कर भ्रमवश दुखको भी सुख मानता है। कविवर बनारसी
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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