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अनेकान्त
(४) अहिंसादि पांच व्रतोंकी पांच-पांच भावनाओंका जैसा वर्णन मूलाचारके पंचाचाराधिकारमें गाथा नं० १४० से १४४ तक पाया जाता है, कुछ साधारणसे पाठ भेदके साथ उन्हीं शब्दों में वह चारित्रपाहुडके गाथा नं० ३२से ३६ तक भी पाया जाता है। यहां उदाहरण के तौर पर एक नमूना प्रस्तुत किया जाता है :महिलालोयरण - पुव्वरदिसरण संसत्तवसधि विकहाहिं । परिणदरसेहिं य विरदी य भावणा पंच बह्महि ||१३| (मूलाचार, पंचाचा० ) महिलालोयण- पुव्वरइसरण संसत्तवसहि-विकहाहि । पुट्ठियरसेहिं विरश्रो भावरण पंचावि तुरियम्मि ||३४|| ( चारित्रपाहुड)
पाहुडमें पांच गावाभोंके द्वारा पांचों व्रतोंकी भावनाएं बताकर भागे समितियांका संक्षिप्त वर्णन किया है । परन्तु मूलाचारमें भावनधोंका वर्णन कर उनका माहात्म्य बतलाते हुये कहा गया है कि---
साधु इन भावनाकी निरन्तर भावना करता है, उसके व्रतोंमें इतनी दृढ़ता आजाती है कि स्वप्नमें भी उसके ती विराधना नहीं होती । सुप्त और मूच्छित दशामें भी उसके व्रत अखंडित और शुद्ध बने रहते हैं । किर जो जागृत साधु है, उसके व्रतोंकी शुद्धि या निर्मलताका तो कहना ही क्या है ?
| करेदि भावणाभाविदो हु पीलं वदारण सव्वेमिं । साधू पासुतो समुदहो वि किं दाणि वेदंतो || १४५ |
(मूलाचार, पंचा० )
किरण १२
जीवोंसे व्याप्त प्रदेश में बिहार करते हुए भी हिंसादिके पापसे लिप्त नहीं होता। जिस प्रकार स्नेहगुणयुक्त कमलिनीपत्र अलसे लिप्त रहता है, उसी प्रकार समिति-युक्त साधु जीवोंके समूह में संचार करते हुए भी पापसे अलिप्त रहता है । अथवा जैसे दृढ़ कवचका धारक योद्धा युद्धमें बायावर्षा होने पर भी अभेद्य बना रहता है, उसी प्रकार साधु भी समितियोंके प्रभावसे जीव-समूहमें विहार करते हुए भी पाप अलिप्त बना रहता है ।
(५) चारित्रपाहुडमें पांच समितियोंका प्रति संचेपसे
वर्णन किया गया है। मूलाचार के पंचाचाराधिकार में उसका विस्तार पूर्वक अति हृदयग्राहा मार्मिक वर्णन पूरी
३० गाथाओंमें किया गया हूं जो कि उसके अनुरूप हो है। समितियोंका उपसंहार करते हुए लिखा है किदाहिं सया जुत्तो समिदीहिं महिं बिहरमाणो दु । हिंसादीहिं ण लिप्पइ जीर्वारणका आउले साहू ।। १२= ॥ पडर्मािणिपत्तं व जहा उदएण ग लिप्पदि सिरोहगुणजुत्तं तह समिदीहिं ग लिपद साहू काएस इरियंतो ॥ १३० ॥ सरवासेहि पडतेहि जह दिढकवचो ण भिज्जदि सरेहिं वह समिदीहिं ण लिप्पइ साहू काएम इरियंतो ।। १३१
अर्थात् इन पाँचों समितियांसे सदा सावधान साधु
इस प्रकार विषयकी समवासे भी मूलाचार कुन्दकुन्दरचित सिद्ध होता है ।
शब्द-समता
विषय - समता के समान मूलाचारकी कुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंके साथ शब्द समता भी पाई जाती है। जिसके कुछ उदाहरण यहाँ दिये जाते हैं:---
(१) मग्गो मग्गफलं तिय दुविहं जिस सामणे समवाद । मग्गो खलु सम्मत्तं मग्गफलं होइ णिव्वारणं ॥ ५ ॥ ( मूला०, पंचाचाराधिकार ) मग्गो मोक्ख उवायो तस्स फलं होइ णिव्वाणं || २ || मग्गो मग्गफल ं ति यदुविहं जिरण सासरणं समक्खादं । ( नियमसार )
(२) पेसुर हासक कसपरणिदापप्प संसविकहादी | वज्जित्ता सपरहियं भासासमिदी हवे कहणं ।। १२ ।। (मूलाचार, मूलगुणाधिकार ) 4 पेसुरणहासकक्कस परदिप्पप्पसंसियं वयणं । परिचित्ता सपर हिदं भासासमिदी वदं तस्स ।। ६२ ॥ ( नियमसार ) (३) एगंते अच्चित्ते दूरे गूढे विसालमविरोहे । उच्चारादिच्चा पदिठावरिया हवे समिदी ||१५|| (मूलाचार, मूलगुणाधिकार) पामुकभूमिपदेसे गूढे रहिए परोपरोहेण । उच्चारादिच्चागो पइट्ठा समिदी हवे तस्स ॥ ६५ ॥ ( नियमसार ) (४) रागी बंधइ कम्मं मुच्चइ जीवो विरागसंपण्णो । एसो जिणोवएसो समासदो बंधमोक्खाणं ।। ५० ।। मूलाधार, पंचाचाराधिकार ) रतो बंधदि कम्मं मुचदि जीवो विरागसंपण्णो । एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज || १५० || ( समयसार )