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अनेकान्त
[किरण ११
रखते हैं। सभी तांत्रिक पौराणिक और जैनसाहित्यमे "इन विभक्त देवोंमें वह कौनसा देवाधिदेव है जो इनकी मान्यता सुरक्षित है। भारतीय अनुश्रुति-अनुसार सबसे पहले पैदा हुआ जो सब भूतोंका पति है, जो चु ये मृत्युको हिलानेवाले घोर तपस्वी ग्यारह महायोगियोंके और पृथ्वीका माधार है, जो जीवन और मृत्युका मालिक नाम है। महाभारत में इनके नाम निम्न प्रकार बतलाए है,इनमेंसे हम किसके लिये हवि प्रदान करें?" गए है-मृगव्याध, २ सर्प, ३ निऋति, ४ अजैकपाद्, "जिस समय अस्थिरहित प्रकृतिम अस्थियुक्त संसारको ५ अहिबुभ्य (पिनाकी. . दहन, ईश्वर, कपालो धारण किया, उस समय प्रथम उत्पन्नको किसने देखा था। १. स्थाणु, भग। इसमेंसे अजैकपाद, अहिन्य, मान लो पृथ्वीस प्राण और रक्त उत्पन्न हुए परन्तु आत्मा भग, स्थाणु मादि कई रुद्रोंका उपरोक्त नामांसे ऋग्वेदके कहाँ से पैदा हया । इस रहस्यके जानकारके पाम कौन कितने ही सूत्रोंमे बखान किया गया है। ये देवता प्राय- इस विषषकी जिज्ञासा लेकर गया था ?" जनने इलावर्त और सप्तसिन्धु देशमे प्रवेश होने के साथ ही इस उठती हुई शंका लहरीने इन्द्रको भी अछूता न माय वहाँक निवासी यक्ष और गन्धर्व जातियोंसे ग्रहण छोदा । होते-होते चैदिक ऋषि अपने उस महान् देवता इंद्र किये है।इस तरह यद्यपि भारत - प्रवेशके माथ इनके के प्रति भी सशंक हो उठे। जो सदा देवासुर और देवता-मयानमें 'मामा' नामके देवताका समावेश जरूर आर्य-दम्युसंग्रामों में प्रार्यगणका अग्रणी नायक बना हो गया, पर भी प्रास्मीय वस्तु नहोकर देवता ही रहा। जिसने को मरा : बना रहा। इस'पास्मा' देवताको धारमीय तत्त्वमें प्रवृत्त वसनेके लिये युद्ध कराया. जिसने दम्युचोंका विध्वंस करके करनेम पार्यजनको बहुत-सी मजिलों से निकलना पड़ा है। उनके दुर्ग नगर, धन, सम्पत्ति, आर्यजनमें वितरण की,
जो अपने उक्त पराक्रमके कारण महाराजा, महेन्द्र, विश्वबहुदेवतावादका ह्रास
कर्मा आदि नामोंसे विख्यात हुमा । इस बदती हुई संख्याके साथ ही साथ देवतावादका एक देवतावादकी स्थापनाहास भी शुरू हो गया और यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति
यह प्रश्नावली निरन्तर उन्हें एक देवतावादकी भार थी। भाखिर बुद्धि इन देवतामोंके अव्यवस्थित भारको ।
प्रेरणा दे रही थी। आखिरकार भीतरसे यह घोषणा कब तक सहन करती। जहां शिशु-जीवन विस्मयसे प्रेरा
सुनाई देने लगीहुमा, सामान्य विशेषताकी भोर, एकसं अनेकताकी भोर
इन्द्रं वरुणं मित्रंमग्निमाहरथो दिग्यः स सुपर्णो गरुस्मान् । छटपटाता है, वहाँ सन्तुष्टि-जाम होने पर प्रौढ उदय
एक सद्विप्रा बहुधा वदन्स्यग्नि यमं मातरिश्वामाह ॥ बाहुल्यता और विभिन्नतासे हटकर एकता और व्यवस्था
॥ऋग-1 १६४-४६ की राह इंदता है। स्वभावतः बुद्धिमे किसी एक ऐसे
मेधावी लोग जिले आज तक इन्द्र, मित्र, वरुण, स्थायो, अविनाशी, सर्वव्यापी सत्ताकी तलाश करनी शुरू
अग्नि मादि अनेक नामांसे पुकारते चले पाये है की जिसमें तमाम देवताओंका समावेश हो सके । शंका ही
वह एक अलौकिक सुन्दर पक्षी के समान (स्वतन्त्र) दर्शनशास्त्रको जननी है, इस उक्तिके अनुसार एकताका
है। वह अग्नि, यम, मातरिश्वा प्रादि भनेक रूप नहीं दर्शन होने पहले इन देवतामोके प्रति ऋषियोंके मन में
है । वह तो एक रूप है। इस भावनाके परिपक्व अनेक प्रकारको शंकाएँ पैदा होना शुरू हुई।
होने पर अनेक देवताओंकी जगह यह एक देवता __ "ये बाकाशमें घूमनेवाला समऋषिचक्र दिनके समय संसारकी समस्त शक्तियोंका सृष्टा वा संचालक बन गया। कहाँ चला जाता है।" " और पृथ्वी में पहले कौन पैदा हुमा कौन पोछे ।।
(३) कस्में देवाय हविषा विधेम-ऋग 10-१२१, किसलिए दा हुए. यह बात कौन जानता है (१)?"
(०) ऋग. 2-10-1, (२) ऋग १.८६-१-२-१२-१,
(७) इन्द्रके इस विवेचन के लिये देखें 'ममेकान्त' वर्ष, +महाभारत पादिपर्व १८,३।
किरण ' में लेखकका मोहनजोदडों कालीन और (1)अग् । २४-10, (२) ग 1-1८५-1,
माधुनिक जैनसंस्कृति "शीर्षक लेख।