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किरण ११]
आर्य और द्रविड़के सस्कृति सम्मेलन उपक्रम
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के लगभग सरकारी पुरातत्व विमाग द्वारा प्रकासमें उपायों द्वारा मनीषिजन इन देवतामोके नाम उच्चारण माये हैं।
भारसे बचने का प्रयत्न कर रहे थे। बहुदेवतावादका उदय
ये सभी देवता एक समय ही रष्टिने न पाये थे, ये
विभिन्न युगोंकी पैदावार थे। शुरू शुरूमें ये सभी देवता ज्यों-ज्या वैदिक ऋषियोंका अनुभव बड़ा और उनपर नीचे, दायें-बायें लोककी विभिन्न शक्तियां उनके अवलो
अपने-अपने क्षेत्र में एक दूसरेसे बिल्कुल स्वतन्त्र, विक्कुल
म्बरछन्द महाशक्तिशाली माने जाते रहे। अपने अपने कनमें पाई. त्या त्यों इनके अधिनायक देवताओंकी संख्या
विशेष क्षेत्र में प्रत्येक देवता सभी अन्य देवताओंका शासक बढ़ती चली गई। भाखिर यह संख्या कम ब्रायविंरा अर्थात्
बना था। पीछेसे एक जगह सम्मिश्रण होने पर इसमें तारसेतोस तक पहुंच गई। भूग्वेदकी ३६६ की श्रुति अनु.
तम्यता, मुख्यता व गोणताका भाव पैदा होने लगा। सार ती संख्या ३५ तक भी पहुँच गई थी। इन
इनकी शुरू शुरू वाली स्वच्छन्दताकी विशेषता एक ऐमी २३ देवों में पाठ वसु (१ अग्नि, २ पृथ्वी, ३ वायु,.
विशेषता है जो न बहुईश्वरवादसे सूचित की जा सकती है अन्तरित भादिस्य, ६ चौ, चन्द्रमा, मनचय )२
और न एकेश्वरवादसे 1 प्रो. मेक्समूलरने इसके लिये एक ग्यारह रुब दश प्राण और एक भारमा३ । द्वादश भादस्य
नई संज्ञा प्रस्तुत की है Henotheism अर्थात् बारी(दादरा माप) एक इन्द्र, एक प्रजापति, सम्मिलित
बारीसे विभिन्न देवोंकी सर्वोच्च प्रधानता, यह बात वो माने जाने लगे थे। इन देवताओं की संख्या बढ़ती-बढ़ती
सहज मनोविज्ञानकी है कि कोई मनुष्य एक साथ अनेक इतनी योफल हो गई कि इन्हें समझने और समझाने के
देवताओंको एक समान सर्वोच्च प्रधान होनेकी कल्पना लिये विद्वानांन इन्हें लोकको अपेक्षा तीन श्रेणियोंमें
नहीं करता, वह एक समय में एकको ही प्रधानता देता है। विभक्त करना शुरू किया। यस्थानीय, अन्तरिक्ष स्थानीय
ऋग्वेदमें जो हम सभी देवताओंको बारी-बारीसे सर्वप्रधान और पृथ्वी स्थानीय । इन श्रेणिबद्ध देवताओं में भी
हुमा देखते हैं उसका स्पष्ट तथ्य यही है कि ये सभी चजोकका सूर्य, अन्तरिक्ष लोकका वायु और पृथ्वीलोककी
देवता एक ही जाति और एक ही युगकी कल्पना नहीं अग्नि मुख्य देवता माने जाने लगे, परन्तु इनमें भी देवा
है कि ये भौगोलिक और सांस्कृतिक परिस्थिति अनुसार सुर अथवा भार्यदम्यु संग्रामों में अधिक सहायक होनेके
विभिन्न जातियों और विभिन्न युगांकी कल्पना पर भाषाकारण वैदिक पार्योंन जो महत्ता इन्द्रको प्रदान की वह
रित है! इसलिए ये अपने-अपने वर्ण, युग और क्षेत्र में अन्य देवतायोंको हासिल न हुई । जब इन देवतामांकी
प्रधानताका स्थान धारण करते रहे हैं। इन सबका उद्गम पृथक् पृथक स्तुति और यज्ञ अनुष्ठान करना, मनुप्यकी
इतिहास एक दूसरेसे पृथक् है और उन सूक्तोंसे बहुत पुराना शक्तिमे पाहरका काम हो गया। तब एक ही स्थानमें
है, जिनमें इनका स्तुति गान, किया गया है। इन बायश्विदेवाके उच्चारण द्वारा सबहीका ग्रहण किये जाने
खिश देवताचामें सबसे भाखिरी दाखला उन देवांका है जो लगा इन उपरोक्त बातोंसे पता लगता है कि किन-किन
रुद्र संज्ञासे सम्बोधित किए गए हैं। इनमें पुरुषके दश () ऋग्वेद ३-६-१, (२) शतपथ ब्राह्मण १.६.३.६ प्राय और एक माल्मा शामिल है। शतपथ बायकारने बृह-उप ३.१.३, (३) शतपथ ब्राह्मण 11.0.4, शतपय दशब्दकी व्युत्पत्ति बताते हुए कहा है-कतमे रुद्रा इति । मा11-६३-७, बृह. उप. ३-६-४ का. उप. ३.१५-4 दश इमे प्राणा, पारमा एकादश, ते यदा यस्मात् शरीरात
वह अप.३.१.१, (३) .प्रा. ४.१.७२, (६) मान् उत्क्रान्ति पय रोदयन्ति तस्मात् का इति ।' (अ) ग्वेद १३.31,(मा) भास्कराचार्यकृत निहाय (शतपथमा०11-1-1.0 श.पा.१५-७ । (देवतकायह) 12-1 (1) शौन-सर्वानुक्रमणी२८। पर्याद य कौनसे हैं ये दश प्राय, और ग्यारहवा वेद में "विश्वदेवा' के नामसे सबकी इक्ट्ठी पास्मा,
शरीरसे ये निकलकर चले जाते हैं संतति की गई है। एते वै सबै देवा यविश्वे देवाः, कौशन- और दुनियावालोंको लाते हैं, इसलिए ये रुख कहलाते हैं। की प्रा. १-१४-१-३ । विश्वे देवाः यत सर्व देवाः, गोपथ रुद्रदेवता यम-जन व दस्युजनके पुराने देवता हैं मा. उत्तराई॥२०॥
और भारतीय योगसाधनाकी संस्कृतिसे घनिष्ठ सम्बम्ब