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किरण २7
भारत देश योगियोंका देश है
उन्होंने राऔर धनी ला
उपाश्रय बना
अन्य छोटे बड़े प्राणि समुदायोंका विघात न हो जावे, गिरि गुफाओं और वनों में रहते हुए ये यद्यपि भेदिया, ये एक ही स्थान पर रहकर जीवन निर्वाह किया रीछ, बाघ, चीता अथवा मृग, भैंस, बराह शेर और करते थे।
जंगली हाथी श्रादि कर जन्तुओंसे घिरे रहते, उनकी __ ये वर्षाऋतुकी समाप्ति पर जगह जगह प्रस्थान
भयानक आवाजोंको भी सुनते, परन्तु ये निर्भय बने कमी करते और सब प्रकारकी जनताको धर्मोपदेश देते हुए
अपने स्वरूपसे चलायमान नहीं होते थे । ३ विचरते । वर्षाऋतके अतिरिक्त यदि ये अधिक दिन तक ये ममताविरक्त, भोग-इच्छाओंसे निवृत्त स्त्री व एक ही स्थान पर ठहरते तो लोग उनकी बहुत टीका- • बालबच्चोंसे रहित, एकाकी, निस्संग, निरारम्भ विचरते टिप्पणी करते । पीछेसे जैसा कि हम ऐतिहासिक युगमें थे, भिक्षा लेकर ही ये अपनी अनुजा विका करते थे। देखते हैं. ज्यों, ज्यों भारत में साम्प्रदायिक वैमनस्य बढ़ा इस भिक्षा द्वारा यह सदा अनुदिष्ट भोजन ही स्वीकार
और उन्होंने राज्याश्रय पानेका प्रयत्न किया त्यों, त्यों उनके करते थे। यह न तो किमीसे कह कर अपने लिये भोजम अनुयायी राजाओं और धनी लागोंने इनके विश्रामके लिए तैयार कराते न दूसरोंके निमन्त्रण पर किसीके घर पाहासुरक्षित स्थानोंमें अनेक विहार और उपाश्रय बना कर रार्थ जाते; बल्कि बिना किसीको बाधा पहुँचाये मधुकरके खड़े कर दिये और ये वनवास छोड़, श्राश्रमवासी, मठ- समान विचरते हुए दूसरोके अर्थ तैयार किये हुए भोजनमे वासी और मन्दिरवासी बन गये।
से ही ४६ दोष राल कर प्रासुक भोजन ग्रहण करते। ये सब प्रकारक परिग्रह से रहित, अचेलक, यथाजात
ये शरीर-पोषण श्रायुवृद्धि व स्वादके लिये भोजन ग्रहण दिगम्बररूप रहते थे। ये निरायुध, उद्वेग-रहित, शान्त
न करते बल्कि प्राणरक्षा, संयमपालन, ज्ञानवृद्धि के लिए और निर्भय होते थे। ये वायुको तरह स्वतन्त्र और निलेप
ही कई कई दिन कई कई पखवाड़े और कई कई मास हो विचरते । सभी जानकारी तक अनशन व्रत धारण करते हुए दिन में एक बार भोजन भाव रखते थे। ये अपने किमी व्यवहारसे किमी जीवको
ग्रहण करते । भोजन-समय यदि उन्हें दातारके द्वार पर भी पीढ़ा न देते थे। जैसे माता अपने बच्चोंका हित
कोई कुत्ता, बिल्ली अथवा कोई याचक खड़ा हुआ दिखाई चाहती है वैसे ही वात्सल्यभावसे ये सबका हित
स्कन्धपुराण-काशीखण्ड-अध्याय ४३, चाहते थे।
नागरखण्ड, अध्याय १८
() विष्णुपुराण-तृतीयांश-अध्याय 1-२८, २९ १-(अ) श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकृत-बांधप्रामृत, ४२-१६
(i) नपः श्रद्धेय ह्यपवसन्यरण्य शान्ता (श्रा) " भावपामृत ८७
विद्वान्सो भैपर्याचरन्तः (इ) उत्तराध्ययन मूत्र ३५-६, ७
सूर्यद्वारेण से बिरजाः प्रयान्ति (ई) मूलाचार १४-१५२
पत्रामृता स पुरुषो ह्यव्ययाएमा । मुगडउप. (उ) विनयपिटक-वर्षायनायिका स्कन्धक-पहिला
और दूसरा खण्ड । (श्री) महाभारत शान्तिपर्व अध्याय ११२ (3) मनुस्मृति--६, ३६-४६ (ए)वार्षिकाश्चतुरो मामान्विहरेनर्यातः क्वचित्'
२-मूलाचार-७१७-७१८ मज्किम निकाय-१२वो
महासीहनाद सुत्त । बोधप्राभूत ११ दशकाबीजांकुराणां जन्तूनां हिंमा तत्र यतो भवेत् ॥२१॥
लिक सूत्र -३, ३, १,१० सूत्रकृतात १, ३, १, गच्छेत् परिहरन् जंतून पिवेत्कवस्त्रशोधितम् ।
उत्तराध्ययन सूत्र ८-३४ ३५ । वाचं वईनुद्वगं न क्रुद्धय स्केचित् क्वचित् ॥२२॥ ३-ऋग्वेद १० १३६ महा शान्तिपर्व के खण्ड में स्कन्धपुराण-काशी खंड अध्याय ४१
अध्याय १९२ मूलाचार ७१.