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अनेकान्त
[किरण
परित्यज्य नृपो राज्यं श्रमणो जायते महान् ।
पीछे से इनका संस्कृतरूप श्रमण बन गया है, इनका तपसा प्राप्य सम्बन्धं तपो हि श्रम उच्यते ।।5-२१२ अर्थ है निग्रन्थ, निष्पाप, निर्विकार, साधु अथवा मुनि ।
रविषेणकृतपदमचरित प्राकृत साहित्यमें जगह जगह जैन और बौद्ध साधुओंके
लिये 'समण' शब्दका प्रयोग हुआ है । यूनानी यात्रियों ईसाकी पहली सदीके बाद सृजन होने वाले भारतीय
और इतिहास लेखकोंने जैन और बौद्ध साधुनोंको 'सरमिसाहित्यमें जगह जगह यह शब्द दिगम्बर जैन साधुओंके ।
नीस, सरमीनिया और सिमूनी प्रादि लिखा है ) लिये प्रयुक्त हुभा मिलता है।।
भारतमें अरब देशके जो यात्री समय समय पर माते वैदिक साहित्यमें जगह जगह कथन पाता है कि प्रजा
रहे है उन्होंने हिन्दुओंके सभी सम्प्रदायोंको दो भागों में पति 'प्रमभ्यतः-अर्थात् प्रजापतिने तप किया।
बांटा है ब्रह्मनिय और समनिय । इन अरव लेखकोंने यह प्राकृतभाषामें इन्हें शिम्यु व सयुन कहा जाता था।
भी लिखा है कि संसारमें पहले दो ही धर्म या सम्प्रदाय पीछे से यह शब्द ( Sanskritised) होकर श्रमण
थे-एक समनियन दृसरे कैल्खियन। (Chaldean) होगया।
समनियन लोग पूरबके देशोंमें थे । खुरासान वाले ०,१००-17 में कथन है कि इन्द्रने अनेक आर्य
इनको बहुवचनमें शमनान और एक वचनमें शमन गण-वारा पाहत होकर पृथ्वी-निवासी दस्युओं और
कहते हैं । सिम्युओंको मार डाला।
०२, १३-६ में कथन है कि इन्द्रने दमितके लिए १००० दस्यु और सयुन पकड़कर बन्दी बनाये थे। ये महात्मा लोग मिट्टी और मोनेको बराबर समझते
प्राकृतभाषामें श्रमणको सवण, समन, समण, सम- है। धर्म, अर्थ और काममे वे प्रासक्त नहीं होते, शत्रु, निय मी कहा जाता है।
मित्र और उदासीन सभीको समान भावसे देखते हैं और दर्शन पाहुर २६, सूत्रपाहर पंचास्तिकाय ३ मन, वचन तथा शरीरसे किमीका अपकार नहीं करते.
उनके रहनेका कोई निश्चित स्थान नहीं है। अरबके लोग समनिया कहते थे । ग्रीक लोग इन्हें मोफिस्ट (Sophish) कहते थे।
ये प्रायः बस्तियोंसे दूर अकृत्रिम अथवा प्राकृतिक स्थानों
में, गिरि शिखरों पर, पहाड़ी गुफाओंमें, नदियोंके तटों पर पञ्चास्तिकाय ममयसार २. नीतिसार २६-३५, वन-उद्यानोंमें. श्मशान भूमि और तर कोटरोंमें, देव-मंदिरों त्रिलोकसार ८४८, दर्शनपाहुड २७, सूत्रपाहुर १ अथवा किसी सूनी जगहमे ग्हा करते थे। ये प्राकृतिक
(क) दीर्घनिकाय वस्तुजातसुत्त १,३२; उदान ६ १० परिषहोंको सहन करते हुये निर्जन देशों में रहते थे। ये (ख ब्रह्मणा भुज्जते नित्यं नाथवन्तश्च मुज्जते। हरितकाय जीवाकी विराधनासे बचते हुये पासुक स्थानों में
बैठते और विचरते थे। ये वर्षानुके सिवाय अधिक तापसा भुजते चापि श्रमणाश्चापि भुज्जते ।
दिन तक एक स्थान पर टिक कर न रहते थे. परन्तु वर्षा -वाल्मीकिरामायण १४-२२
ऋतुके चतुर्मास (असादका शुक्ल पक्ष, सावन, भाद्रपद, अर्थ-महाराज दशरथके यहाँ नित्य हीब्राह्मण लोग, मौज और कात्तिकका कृष्णपक्ष ) में यह हिमाके भयमे नाथवन्त लोग तापस लोग और श्रमय लोग भोजन कि कहीं उनके चलने फिरनेसे बरसातके कारण पैदा हो पाते हैं।
जाने वाले अनेक प्रकारके घास, वनस्पति,गुल्म, लता तथा (ग) कौटिल्य अर्थ शास्त्र अध्याय ११व अध्याय १२ में कहा गया है कि राज गुप्तचरोंको श्रमणरूप धारण
ईलियटकृत इन्डिया, पहला खण्ड-पृ० १०६ करके अपने व्यक्तित्वको छिपाना चाहिये ।
x मौलाना सुलेमान नदवी-परय और भारतके (घ) तत्तरीय प्रारण्यक २,७,१
सम्बन्ध १० १७६-१८७