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________________ भारत देश योगियोंका देश है (बाबू जयभगवानजी एडवोकेट) तपमार्गकी परम्परा जन स्वयं अपने इन नग्न दिगम्बर साधुनोंको शिश्नदेवके वदिक साहित्य की अनुश्रतियां इस पक्षमें भली भांति नामसे न पुकारते थे, किन्तु वे उन्हें व्रात्य (बतधारी) सुरक्षित हैं कि मनुष्यका प्रादिधर्म तप था, जमके पश्चात् यति (संयमी), श्रमण (तपस्वी), निम्रन्थ (निर्मल), जिन. ज्ञानका युग पाया और फिर द्वापरमें याज्ञिक सस्कृतिने जिनेश आदि शब्दोंसे ही पुकारते थे। जन्म पाया । इसी अनुश्र तिक पापक बाह्मण प्रथाक वैदिक आर्यजनको प्रारम्भिक कालसे उनके तत्वदर्शन, वे तमाम उपाख्यान हैं, जिनमें प्रजापतिकी तपस्या और उनके उच्च प्रादर्श. उनकी निर्मल विश्वव्यापिनी भावनातपस्या-द्वारा बिसृष्टि उपक्रमका वर्णन किया गया है। ओंका कुछ पता न था-वे केवल उनके नग्न शरीरको या इन उपाख्यानोंमें प्रजापति शब्द निर्गुणब्रह्ममें शिरकी जटामांको और उनके प्रति लोगोंकी देवता समान उपयुक्त नहीं हुआ है, बल्कि जीवहितैषी, लोककल्याणक, भक्तिको देखते थे, और इस प्रकारके ममुष्य उनके लिये जननायक धर्मानुशासकके अर्थ में व्यवहृत हुआ है। इस बहुत ही अनोम्वे मनुष्य थे। उनके लिए एक कौतुहलकी अनुश्रतिके अनुसार प्रजापतिने हम भावनासे 'एकमस्मि वस्त थे । इसलिये उन्होंने उस प्रारम्भिककालमें उन्हें बहुस्याम् भवतः ।' 'कि मैं एक हूँ-बहुत हो जाऊँ शिश्नदेव (नग्न साधु) केशोदेव, (जटाधारीदेव) श्रादि शब्दा तप किया, इस भावनाका प्राध्यात्मिक अर्थ तो बही है द्वारा सम्बोधित किया है। पीछेके वैदिक साहित्यमें जब जो ईपावास्य उपनिषद्के मन्त्रमें किया गया है:- प्रार्य ऋषि इन ग्यागी तपस्वी साधुनांके उच्च आदर्श यस्मिन् सर्वाणि भूतानि, श्रात्मैवाभूद्विजानतः। और निर्मल पति-जीवनसे परिचित हुए और उनके प्रति तत्र को मोहकः शोक एकत्वमनुपश्यतः ।। ७॥ उनमें भी भक्तिका उर्ग प्रस्फुटित हुआ तो उन्होंने शिश्न परन्तु इन आध्यात्मिक भूतियोंके समीचीन अर्थ दव, केशीदेव कहनेकी बजाय उन्हें भारतीय लोगोंकी तरह विलुप्त हो जानेके कारण इसका जो आधिदैविक अर्थ किया उनकी महत्ता सूचक व्रात्य (बती) यति (संयमी) मादि जाता था उसके अनुसार यह माना जाने लगा कि प्रजापनि नामांमे पुकारना शुरू कर दिया। आर्यजनकी इस अनभिएक था उसका चित्त अकेलेपन घबराया इसलिये उसने जताकी ओर ही संकेत करते हुए ऋग्वेदके केशी सूक्तम ये लोकांकी मृष्टि कर ली। इस अध्यात्म मतकी पुष्टि इस मुनिजन उन्हें कहते है:--- अनुश्र तिमे भी होती है कि 'प्रजापति एक वर्ष गर्भ सन्मादिता मोलेयेन वाताँ तस्थिमा वयम । में रहा। श्रमण शब्दकी व्याख्या शरीरास्माकं यूयं यतीसो (शो) अभिपश्यथ ।। (शिश्नदेव और कंशीका वर्णन ) -ऋग्वेद म० १०, १३६, ३ शिश्नका अर्थ पुरुष-सम्बन्धी जननेन्द्रिय है। शिक्ष- हम समस्त लौकिक व्यवहारांके विसर्जनसे उम्मत्त दवका अर्थ है नग्न दिगम्बर साधु । जो लोगोंमें देवसमान (श्रानन्द रसलीन) हो गए है। हम वायु पर चढ़ गए हैं, उपास्य है । इस अर्थमें यह शब्द ऋगवेदमें दो बार उप- नुम लोग केवल हमारा शरीर देखते हो। हमारी पाश्मा युक्त हुआ है। वायु समान निलेप है। (1) ऋग.७,२३,५ में इन्द्रसे प्रार्थनाकी गई है कि समय-यह शब्द श्रम धानुसे बना है जिसका अर्थ वह शिभदेवको यज्ञके समीप न श्राने दे। है परिश्रम करना। चूंकि ये तपस्या-द्वारा अपने में समस्त (ii) ऋगवेद १०,११,३ में कहा गया है कि इन्दने प्रकारकी शारीरिक और यौगिक वेदनाओंको समता पूर्वक शिभ देवोका वध किया। सहन करनेकी शक्तिको जगानेका परिश्रम करते है इसलिये यह शब्द वैदिक विद्वानांकी ही सृष्टि है। भारतीय ये श्रमण कहलाते हैं।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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