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________________ ६.] अनेकान्त [किरण २ जब मस्तिष्कका विषय माना गया है दर्शन इन्द्रियोंका विश्वास है कि आधुनिक प्रचार-युगमें उपयुक्त प्रचारके विषय माना गया है। पर शुद्ध दृष्टिसे तो ज्ञान-दर्शन-मय साधनों द्वारा जैन सिद्धान्तोंमें वर्णित मानत्र मात्रके सच्चे ही प्रारमा है। पास्माकी चेतना ही ज्ञान-दर्शन मय है कल्याणकारी तत्वोंकी वैज्ञानिक व्याख्या संसारमें शुद्ध और दोनों एक दूसरेसे अलग नहीं किए जा सकते। ज्ञानकी वृद्धि और विकासके लिए करना परमावश्यक है। शरीर और पुद्गल प्रात्माके अनन्त ज्ञान दर्शनको ढकने अाजका वैज्ञानिक समाज जो विश्व-विचारका जनक या या सीमित करने वाले हैं परन्तु शरीरके द्वारा ही उचित नेता है-श्रात्मा और दर्शनमें उसका झुकाव दिलचस्प साधना द्वारा तत्त्वोंकी पूरी जानकारी प्राप्त कर इस पुद्- या अनुराग, इन सिद्धान्तोंको उसीकी भाषा और शब्दोंमें गलरचित शरीरसे और इसके ज्ञानावरणादि व्यवधानों या समझाकर उत्पन्न किया जा सकता है। संपार विज्ञानकी बंधनोंसे छुटकारा पाया जा सकता है। शास्त्र और तत्व- बातोंको मानता और उन पर विश्वास करता है । ज्ञान उसमें सहकारी हैं। पर शास्त्रों-द्वारा या गुरुत्रा-द्वारा धर्मको पाखंडने इतना बदनाम कर दिया है कि उसके ज्ञान प्राप्त कर उसे अपना स्वयं अनुभूति विषय बनाना नाममें कोई अक्छी से अच्छी और सच्चीमे सच्ची बात प्रत्यक्ष बनाना ही कार्यकारी है और मोक्ष कराने वाला है। वैसा विश्वास नहीं उत्पन्न करती। इसीलिए जैनसिद्धान्तों प्रात्मा क्या है अथवा आत्मा और पुद्गलके रूप में वर्णित इन सत्यतत्त्वोको संसारको बतलानेके लिए उन्हें और सम्बन्ध भी प्रारम्भमें शास्त्रों द्वारा ही जाने जा अाधुनिक विज्ञानकी भाषामें रखना होगा । इसी ध्येयको सकते हैं-उन पर विश्वास करके ही कोई आगे बढ़ लेकर इस वैज्ञानिक दृष्टिकोगा या पहलूकी तरफ विद्वानीसकता है। फिर पारमा तो केवल प्रान्माद्वारा ही जाना का ध्यान आकर्षित करनेके लिए ही मैंने यह लेख लिखा जा सकता है। जो एक अन्तिम बात है-प्रारम्भमे तो है। इसमें कुछ संकेत रूपसं ही थोड़ीमी बातें बतलाई गई आत्माकी स्थिति और गुणादिकी धारणा हम शास्त्रांमे हैं। विषय बहुत ही विशाल है और शास्त्रों में हर जगह वर्णित रीतिसे ही पठन, पाठन, मनन तर्क, विवेचनादि विशद विवरण या वर्णन वर्तमान है ही। अतः जो विद्वान द्वारा कर सकते हैं। यही सम्यक्दर्शनकी सीढ़ी है। जैन सिद्धान्तोंकी श्रेता और पूर्व सस्यतामें परम विश्वास रखते है तथा यह मानते है कि उनका प्रचार, सच्चे सम्यकज्ञान और सम्यकदर्शनके बिना सम्यक् संसारमें सत्यकी स्थापना, सच्चे ज्ञानकी वृद्धि और चारित्र पूर्ण रूपसे सम्भव नहीं है। चारित्रका ऊँचास विकास एवं मानवका सच्चा कल्याण करने वाला है वे ऊँचा विकास भी बगैर सम्यकदर्शन ज्ञानके मोक्षकी ओर तत्वोंकी विवेचनात्मक टीका इस वैज्ञानिक पद्धतिसे नए नहीं ले जाता। पुण्यकर्म और शुभ बंध हो सकते हैं पर रूपमें पुनः करें यदि उन्हें समय शक्ति और सुविधाएँ कर्मोंसे या पुद्गलोंसे पूर्ण छुटकारा नहीं मिल सकता। सुलभ हो। यों भी जैन शब्द जैन संस्कृति और जैन मात्मज्ञान और भारमध्यान भी शुद्ध तभी सम्भव हैं जब मंस्थाओंकी सुरक्षाके लिए भी वर्तमान प्रचार-युगमें यह प्रत्यक्षदर्शी सा अनुभवमें आने वाला तत्वज्ञान या तत्व प्रचार करना परम आवश्यक और हर जैनका कर्तव्य है। दर्शन होजाय। सुरक्षा, विश्वसुरक्षा, विश्वशान्ति और अहिंसा एवं सत्यपरिशिष्ट:- यह लेख मेरे अपने स्वतन्त्र विचारोंको के व्यापक विस्तारके लिए भी तत्त्वोंके इस सम्यच्ज्ञान व्यक्त करता है किसी दूसरोके विचारोंको खण्डन मण्डन का नए रूपमें विकास, प्रतिपादन और विस्तार करना करनेके लिए या उस ध्येयसे नहीं लिखा गया है । मेरा हमारा परम पावन कर्तव्य है।]
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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