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अनेकान्त
[किरण २
पता तो उन्हें चोभ-रहित करने के लिए वे बिना पाहार यज्ञोपवीत और कषाय वस्त्र धारण करने वाले ब्रह्मर्षिके लिये सम्तोष भावसे वनको वापिस हो जाते थे। घरमें मधु मांसको छोड़कर पाठ ग्रासका भोजन करके योग
ये सब जीव जन्तुयों पर दया करते हुये कभी रात्रिके मागसे मोक्षकी प्रार्थना (साधना ) करते हैं। भोजन न करते.न बिना देखे और शोधे भूमि पर ३-हंस नामक संन्यासी एक स्थानमें नहीं रहते: वे चलन अनछने पानीको पीते, न किसीको कठोर और विभिन्न प्राम-नगरोंमें घूमते रहते हैं. वे गोमत्र और गोबरहानिकारक शब्द बोलते।
का पाहार करते हैं और योगमार्गसे मोजकी प्रार्थना
करते हैं। थे मुनिजन सभी सांसारिक कामनाओंसे विरक्त हुए तत्त्वबोध जीवनशोध, प्रात्मचिन्तन और सदुपयोग आदि ४-परमहंस यति संसारमें बहुत विरले हैं वे दण्ड, विश्वकल्यायकारी प्रवृत्तियामें ही अपना समग्र जीवन कमण्डलु शिखा, यज्ञोपवीत प्राविधिक
रहित होते हैं, उनके पास किसी प्रकारकी वस्तु भी नहीं व्यतीत करते थे।
होती। आकाश ही उनका वस्त्र हैं। वे यथाजात रूप इनकी जीवन-चा सम्बन्धी यही वर्णन वेदों-और
निम्रन्थ निष्परिग्रहरूप विचरते हैं, वे नमस्कार स्वाहाकार उपनिषदोंमें दिया हुआ है।
प्रादि सभी लोक-व्यवहारोंको छोड़कर प्रात्माकी खोजमें लगे उपनिषदोंमें वर्णित परमहंसोंकी जीवनचर्या हैं। वे राग-द्वेष, काम-क्रोध, हर्ष-विषाद सभी खोटे परि
वैदिक साहित्यमें इन योगियोंको श्राचार-सम्बन्धी णामाको छोड़कर सम्यक्त्व सम्पन्न, शुद्धभावरूप वर्तते विभिशताके आधार पर चार श्रेणियाम विभक्त किया हुए यात्म-शोधमें लगे हैं। वे पारि गया है-१ कटीचर, २ बहदक, ३ हंस, और ४ बने हुए प्राणांकी रक्षार्थ औषधि समाम यथा म
मांगकर थोडासा प्रासुक भोजन ग्रहण करते हैं। उनके रहनेके परमहंस ।
कोई विशेष स्थान नहीं हैं। वे निन्दा स्तुति, लाभ-अलाभमें १-कुटीचर पाठ ग्रासका भोजन करके योग
समता धारण किये जगह-जगह विचरते रहते हैं। परन्तु मार्गसे मोरकी प्रार्थना (साधना) करते हैं, जैसे-गौतम,
वर्षाऋतुके चतुर्मासमें वे एक स्थान पर ही ठहरते हैं। भारद्वाज, याज्ञवल्क्य, वशिष्ट आदि।
वे बस्तियांसे दूर निर्जनस्थानोंमें गिरि, गुहा, कन्दर, तरु२-बहुदक संन्यासी, विदण्ड. कमण्डलु, शिवा कोटर, वृक्षमूल, श्मशानभूमि, शून्यागार, देवगृह, तृण१-बहकेर प्राचार्य कृत मूलाचार श्लो. १३४-१०००। र, कुलालशाल, अग्निहोत्र-गृह, नदी तट आदि स्थानों में
ही रहते हैं। वे पूर्ण ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह अहिसा अचौर्य कुन्दकुन्द प्रा०-बोधप्राभृत ४उत्तराध्ययन सूत्र-३५ वा अध्याय । मनुस्मृति ६, ३९-४६ ।
और सत्य धर्मोंका अनुशीलन करते हैं। वे सदा निर्मम पुण्डक उप. १,२, १३
निरहंकार शुभाशुभ कर्मोंके उन्मूलनमें तत्पर अध्यात्मनिष्ठ
शुक्लध्यान-परायण रहते हैं और मृत्यु के समय सन्याससे २-सूत्रकृताङ्ग १,१, ४-४३,२-२-७२, ७३%, दश
दह त्याग कर देते हैं।" वैकालिक सत्र १-४ । निग्रन्थ प्रवचन १-१५ मूलाचार ४७६-४८१, मनुस्मृति ६, १५-२८ । महा.
___ इन परमहंसोमें अंसबर्तक, पारुणि, श्वेतकेतु, दुर्वासा, शान्ति पर्व अध्याय है।
भृगु, निदाघ, जद, भरत, दत्तात्रेय, रैवतक, शुकदेव और
बामदेव बहुत प्रसिद्ध हुये हैं। ३-मनुस्मृति-अध्याय ६. ३६-४६
परमहंसोंका उक्त वर्णन दिगम्बरजैन साधुमाके स्कन्ध पुराण-काशी खण्ड-अध्याय ४१-८१
जीवनसे बहुत ही मिलता जुलता है। ऋग्वेदके केशी सूक्त विष्णुधर्मोत्तर-द्वितीय भाग-अध्याय ११ ४-कुन्दकुन्द आचार्यकृत भावप्राभृत, शील प्राभृत,
1-(अ) जाबालोपनिषद् ॥६॥ (प्रा) परमहंसोपनिषद् । मोक्ष प्राभृत ग्रन्थ । सूत्रकृता श्रुतस्कन्ध है वो
(इ) भिक्षुकोपनिषद। पारुणिक उपनिषद् । अध्याय। उत्तराध्ययन सूत्र ३५ वां अध्याय ।
२-जाबालोपनिषद् ॥६॥ भिक्षुकोपनिषद् ।