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किरण २
भारत देश योगियोंका देश है
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(१०-१३६) वामदेव सूक्त (४-२६-२७) अथवा 'यदि वानप्रस्थीमें ब्रह्म-विचारकी सामर्थ्य हो तो अथर्ववेदके वास्य सूक्त काण्ड ११ तथा महाभारतमें शरीरके अतिरिक्त और सब कुछ छोड़कर वह सन्यास लेवे। दिये हुए कृष्ण द्वीपायण व्यासके पुत्र शुकदेवके वर्णनसे तथा किसी भी व्यक्ति, वस्तु स्थान और समयकी अपेक्षा सिद्ध है कि भारतमें यतिचर्याकी जो अचेलक परम्परा न रखकर एक गाँव में एकही रात ठहरनेका नियम लेकर पृथ्वी शूग्वेदिक कालके पूर्वसे चली आ रही थी बही परम्परा पर विचरण करे । यदि कोई वस्त्र पहिने तो केवल कोपोन,
एखलाबद्ध रीतिसे महाभारत कालमेंसे होती हुई भग- गुप्त अंगोंको ढंकनेके लिये । जब तक कोई आपत्ति न पाये, वान महावीर और महाप्मा बुद्ध तक प्रचलित रही। तब तक दण्ड प्रयवा अपने प्राश्रमके चिह्नोंके सिवा अपनी मज्झिमनिकायके महासीहनाद सुत्तसे प्रकट है कि निष्क- त्यागी हुई कोई वस्तु भी ग्रहण न करे । उसे समस्त मणके बाद शुरू शुरूमें भगवान बुद्ध परमहंस अचेलक प्राणियोंका हितैषी होना चाहिये । शान्त और भगवत् वर्गके यति थे। वह नग्न रहा करते थे। वह उहिष्ट अर्थात् परायण रहे । किसीका प्राश्रय म लेकर अपने पापमें ही उनके उद्देश्यसे बनाये हुए भोजनक त्यागी थे। वह भांज- रमे एवं अकेला ही विचर । वह न नी मृत्युका ही अभिनार्थ किसीका निमन्त्रण भी स्वीकार न करते थे, वह नन्दन करे, न अनिश्चिः जीवनका । वह अपने निर्याह के भिक्षा भोजन सब दोषों को टालकर ग्रहण करते थे। बीचमे लिये किसी भाजीविकाको न करे। केवल वाद-विवादके कई कई दिनके उपवास भी रखते थे। वे शिर और दादी लिये किसीसे तर्क न करे । संसारमें किसीका पक्ष न ले। के बाल बढ़ने पर उन्हें नोंचकर अलग करते थे। वे मान शिष्य-मण्डली न जुटावे।बहुनसे प्रयांका अभ्याम न करे । द्वारा शरीरको मनसे भी न छाते थे। सभी जीवों पर व्याख्यान न दे । बड़े-बड़े कामोंको प्रारम्भ न करे । ऐसे दया पालते थे, एकान्त वन व श्मशान में विचरते, गर्मी- शान्त समदर्शी सन्यासीके लिये किसी पाश्रमके चिम्हांकी सर्दी अादिकी परिषहोंको सहन करते थे।
भी जरूरत नहीं है। वह सदा श्रान्म अनुसन्धानमें निमग्न ___महावीर निर्वाणके बाद भी, जैसा कि ईस्वी सन्की ।
रहे । हो तो अत्यन्त विचार शील, परन्तु जान पड़े पागल दशवीं सदी तकके भारतीय धामिक साहित्यसे विदित है श्री
और बालककी तरह । प्रतिभाशाली होते भी गूंगा सा दिगम्बर जैन यतिचर्या ही भारतीय योगियोंके लिये सदा
जान पड़े। एक श्रादर्श बनी रही है।
(३) छठी से नवीं शताब्दी तकके तान्त्रिक साहित्यमें शिवपुराण व्यविय ?) संहिता २१ । २०, २१ में
अवधूत जीवनका जो विवरण दिया हुआ है वह उपकहा है:
रोक्त परमहंस जीवनम ही मिन्दता जुलता है । इस माहि
स्यके प्रसिद्ध ग्रन्थ महानिर्वाण नन्त्र : ४. १४१-11 में नतस्तु जटिलो मुशिखैर: जट एव वा।
कहा गया हैभूत्वा स्नात्वा पुनवर्ति लज्जह चेत स्यादिगम्बः॥ अन्यकापायवसनश्चर्मवीराम्बरोऽथचा।
कलियुगमें दो ही पाश्रम होते हैं. गृहस्थ और एकाम्बरो बल्कली वा भवेद्दण्डी च मेखली।। भिक्षुक अथवा अवधत । ये अवधन चार प्रकारके होते है।
परन्तु इसी प्रकरणमें भागे चलकर कहा है कि वास्तव. पूर्णताको अपेक्षा य दाही प्रकारक हान ह-पूर्ण प्रार में वही महात्मा और तपस्वी है जिसने दण्ड, कौपीन अपूर्ण । पूर्ण अवधूत परमहम
अपूर्ण। पूर्ण अवधूत परमहंम कहलाने हैं, और अपूर्ण आदिका भी त्याग कर दिया है
अवधूत परिवाजक कहलाते हैं। इनमें परमहंसका स्वरूप ततो दण्डजटाचरिमे बलाद्यपि चोत्सृजेत् ।
निम्न प्रकार दिया गया है:सोऽत्थाश्रमी च विज्ञेयो महापशुपतस्तथा ।
(४) भारतके प्रसिद्ध राजषि भनु महाराजने भी स एव तपतः श्रेष्ठः स एव च महाव्रती।
वैराग्यशतकमें अपने हृदयकी अन्तर भावना इन शब्दों में (२) भागवत पुराण-स्कन्ध , अध्याय १३ में अव
प्रगट की हैधूत प्रह्लाद संवादके प्रकरणमें यतिधर्मका निरूपण इस
एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः। प्रकार किया है
कदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिमूननक्षमः ॥७२॥