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अाठ शंकानोंका समाधान
(श्री. १.५ सुल्लुक मिद्धमागर ) समयसार की रवी गाथा और श्री कान जी स्वामी नामक लेखमें जो अनेकान्तकी गत किरण में प्रकाशित हमा है मुख्तार श्री जुगलकिशोर तोकी पाठ शंकाएँ प्रकाश में आई है जिनका समाधान मेरी रक्षिसे निम्न प्रकार हैমা যা
में और सिद्धसेनाचार्यने स्वयम्भूस्तुति (प्रथमद्वात्रि (१) श्रात्माको अबस्पृष्ट, अनन्य और अविशेषरूपसे शिका) में 'अनादिमध्यान्त' पदका प्रयाग किया
देखने पर सारे जिनशासनको कैसे देखा जाता है ? है। समयसारके एक कलशमें अमृतचन्द्राचार्य ने भी (२) उस जिनशासनका क्या रूप है जिसे उस द्रष्टाके 'मध्याद्यन्तावभागमुक्त' जैसे शब्दों द्वारा इसी बातका द्वारा पूर्णतः देखा जाता है।
उल्लेख किया है। इन सब बातोंका भी ध्यान में (३) वह जिनशासन श्रीकुन्दकुन्द, समन्तभद्र. उमास्वाति
लेना चाहिये पार तब यह निणय करना चाहिये कि और अकलंक जैसे महान् प्राचार्योंके द्वारा प्रतिपादित
क्या उक्त सुझाव ठाक है? याद ठीक नहीं है अथवा संसूचित जिनशासनसे क्या कुछ भिन्न है ?
तो क्या? (१) यदि भिन्न नहीं है तो इन सबके द्वारा प्रतिपादित (5) १४वी गाथामें शुद्धनयके विषयभूत प्रात्माके लिए एवं संसूचित जिनशासनके साथ उसकी संगति कैसे
पांच विशेषणाका प्रयोग किया गया है, जिनमेंस बैठती है?
कुल तीन विशेषणोंका ही प्रयोग १५ वी गाथाम (२) इस गाथामें 'अपदेमसंतमझ' नामक जो पद पाया
हुमा है, जिसका अर्थ करते हुए शेष दो विशेषणाजाता है और जिसे कुछ विद्वान् अपदेसमुत्तमम्झ'
"नियत और असयुक' को भी उपलक्षणके रूपमें रूपसे भी उल्लेखित करते हैं, उसे 'जिगाशामण'
ग्रहण किया जाता है, तब यह प्रश्न पैदा होता है पदका विशेषण बतलाया जाता है और उससे द्रव्य
कि यदि मूलकारका ऐसा ही प्राशय था तो फिर श्रुत तथा भावश्रुतका भी अर्थ लगाया जाता है. यह
इस ९ वीं गाथाम उन विशेषणांको क्रमभंग करके सबकहाँ तक संगत है अथवा पदका ठीक रूप, अर्थ
रखनेकी क्या जरूरत थी ? १४वीं गाथा के और सम्बन्ध क्या होना चाहिए !
पूर्वार्धको ज्योंका त्यों रख देने पर भी शेष दो विशे(१) श्रीअमृतचन्द्राचार्य इस पदक भर्थ विषयमे मौन है। पणोंको उपलक्षणके द्वारा ग्रहण किया जा सकता
और जयसेनाचार्यने जो अर्थ किया है वह पदमें था। परन्तु ऐसा नहीं किया गया, तब क्या इसमें प्रयुक्त हुए शब्दोको देखते हुए कुछ खटकता हुआ कोई रहस्य है, जिसके स्पष्ट होने की जरूरत है ? जान पड़ता है, यह क्या ठीक है अथवा उस अर्थमें
अथवा इस गाथाके अर्थ में उन दो विशेषणांको ग्रहण खटकने जैसी कोई बात नहीं है?
करना युक्त नहीं है! , (७) एक सुझाव यह भी है कि यह पद 'अपवेससंत
मझ (अप्रवेशसाम्तमध्यं) है, जिसका अर्थ अनादिमध्यान्त होता है और यह 'अप्पारणं । पास्मान)
१. उक १४ वीं गाथा इस प्रकार हैपदका विशेषण है, न कि जिणशासण पदका।
जो पस्सदि अप्पाणअब अणगणयं णियदं । शुद्धामाके लिये स्वामी समन्तभदने रत्नकरण्ड (६) अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धा वियाणीहि ॥१४॥