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________________ किरा हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण [१८ है। युधिष्ठिर भीम और अर्जुन न तीन पाडवोंने तथा लोग सोनगढ़ पाए। और वहाँसे पुनः अहमदाबाद भनेक ऋषियोंने शत्र जयसे मुक्तिनाभ किया है। गुजरा- भाकर पूर्गक प्रेमचन्द्र मोवोचददि जैन बोजि हाउसतके राजा कुमारपालके समपमें इस क्षेत्र पर लाखों रुपए में ठहरे। अगले दिन संघ रेलवेसे तारगाके लिये रवाना लगाकर मन्दिरोंका जीर्णोद्धार किया गया था, तथा नूतन एमा। क्योंकि तारंगाका रास्ता रेतीला अधिक होनेसे मन्दिरोंका निमाय भी हमा है। कुछ मन्दिर विक्रमकी बारीके फंस जानेका खतरा था। जयपुर वालोंको खारियों 11-12 वीं शताब्दीके बने हुए है और शेष मन्दिर १५ धंस गई थीं, इस कारण उन्हें परेशानी उठानी पड़ी थी। वों शताब्दीके गदमें बनाए गए हैं। यहाँ श्वेताम्बर सम्प्र- अत परेशानीसे बचने के लिये रेलसे जाना ही अयस्कर दायके सहस्र मन्दिर हैं। इन मन्दिरों में कई मन्दिर समझा गया । कलापूर्ण हैं। इनमें जो मूर्तियाँ विराजमान हैं उनकी उस इस क्षेत्रका तारंगा नाम का और कैसे पड़ा यह कुछ प्रशान्त मूर्ति कलामें सरागता एवं गृही जीवन जैसा रूप ज्ञात नहीं होता । इसको प्राचीनताके योतक ऐतिहासिक नजर पाने लगा है-वे चांदो-सोने आदिके प्रलं प्रमाण भो मेरे देखने में नहीं पाए । मूर्तियाँ भी विशेष कारों और वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हैं-नेत्रों में कांच पुरानो नहीं है। निर्वाणकायहकी निम्न प्राकृत गाथामें जड़ा हुआ है। जिससं दर्शकके हृदयमें वह 'तारप्रणयरे' पाठ पाया जाता है जिसका अर्थ 'साराविकृत एवं अलंकृतरूप भयंकर और पास्म दर्शनमें पुर' नामका नगर होना चाहिये । परन्तु उसका वारंगारूप बाधक तो है ही, साथही, मूतिकलाके उस प्राचीन उद्द. कैसे बन गया? यह अवश्य विचारणीय है। श्यके प्रतिकूल भी है जिसमें वीतरागताके पूजन का उपदेश वरदत्तोयवरगोसायररत्तो य तारवरणयरे [णियडे] । प्रन्थोंमें निहित है। जैन मूर्तिकलाका यह विकृत रूप किसी पाहुट्ट य कोड आ णिव्वाणगया णमो तेसि ।। तरह भी उपादेय नहीं हो सकता, यह सब सम्प्रदायके ज्यामोहका परिणाम जान पड़ता है। इस गाथामें तारापुरके निकटवर्ती स्थानसे वरांग, सागरदत्त, वरदत्तादि साढ़े तोन करोष मुनियों का निर्वाण उक्त श्वेताम्बर मन्दिरोके मध्य में एक छोटासा दिग होना बताया गया है। इसमें जो यहाँ बरांग वरदत्त और म्बर मन्दिर विद्यमान है. जो पुगतन होते हुए भी उसमें सागरदत्तका निर्वाण बतलाया, वह ठीक नहीं है क्योंकि नूतन संस्कार किया गया प्रतीत होता है। परन्तु मूर्तियाँ वरांग मोर नहीं गया और वरदत्तका निर्वाण अवश्य १७वीं शताब्दोके मध्यवर्ती समय की प्रतिष्ठित हुई विरा. हुमा है पर वह प्रानर्तपुर ® देशके मणिमान पर्वत पर जमान है। मूलनायककी मूर्ति सं० १६, की है। एक हुभा है तारापुर या तारपुरमें नहीं। तथा सागरदत्तके मम्ति सं० १६६१की भी है और प्रवशिष्ट मूनियाँ सं० 10 निर्वाणका कोई उक्लेख अन्यत्र मेरे देखने में नहीं पाया। ६५ की विद्यमान हैं। मूल नायककी मूर्ति विशाल और वरांगके स्वर्गमें जानेका जो उस्लेख है-वह उसी मणिमान चित्ताकर्षक है। ये सब मूर्तियाँ हमवंशी दिगम्बर जैनों पर्वतसे शरीर छोड़कर सर्वार्थ सिदि गए । जैसाकि जटासिंह के द्वारा प्रतिष्ठित हुई हैं। मन्दिरका स्थान अच्छा है। नन्दीके ३१वें सर्गके वरांगचरितके निम्न पचसे प्रकट हैं। पूजनादिकी भी व्यवस्था है। पहाड़ पर चढ़नेके लिए नूतन सीढ़ियोंका निर्माण हो गया है जिससे यात्री विना कृत्वा कषायापशम क्षणेन किसी कटके यात्रा कर सकता है। ध्यानं, तथाद्य समवाप्य शुक्लम् । पहारके नीचे भी दर्शनीय श्वेताम्बर मन्दिर हैं उन यथापशान्तिप्रभवं महात्मा सबमें सागरानन्द सूरि द्वारा निर्मित मागम मन्दिर है. स्थान समं प्राप वियोगकाले ॥१०५ जिसमें श्वेताम्बरोय भागम-सूत्र संगमर्मरके पाषाण . महाभारत और भागवतमें भामत देशका उल्लेख पर उत्कीर्ण किए गये हैं। उनमें अंग उपांग भी खोदे गए किया गया है और वहाँ द्वारकाको भानत देशमें है। पाखीवानामें ठहरनेके लिए धर्मशाला बनी हुई बतलाया है। है। जिसमें यात्रियोंको ठहरनेकी सुविधा है। द्वारका पासवर्वी देशको भी मानतदेश कहा गया है। शहरमें भी दिगम्बर मन्दिर है। पालीतानासे हम देखो पद्मचन्द्र कोष १.८०
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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