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१६.]
अनेकान्त
कर्मावशेषप्रतिबद्धहेनो,
सन् १.३० में कृष्ण जीने उसे अपने अधिकारमे ले लिया। सनि ति नापदनो महात्मा।
तथा सन् १.६१ अथवा १७७० में सिंधियाने कब्जा कर विमुच्य देहं मुनि (सुचि) शुद्धलेश्यः
लिया। उसके बाद सन् १८७ [वि.सं.१80.] में प्रारधियन्त (नान्त) भगवाजगाम ।
अंग्रेज सरकारने उसे अपने प्राधीनकर लिया । इस यथैव वीर प्रविहाय राज्यं,
पहायके नीचे उत्तर पूर्वकी ओर राजशू चापानेरके ताश्च मसंयम माचचार ।
खण्डहर देखने योग्य हैं और दक्षिणको भोर भनक तथैव निर्वाण फलावसानां, (नं)
गुफा हैं जिनमें कुछ समय पूर्व हिन्दु साधु रहा करते लोक (क) प्रतिष्ठां (प्रतस्थौ) सुरलोकमनि ॥ थे। पहाए पर तीन मीलकी चढ़ाई और उतनी हो
विक्रमकी ५वीं शताब्दीके विद्वान भट्टारक उाय उतराई है। कीर्तिने अपनी 'निर्वाणभक्तिमें निर्वाण स्थानोंका वर्णन पावागढ़के नीचे चांपानेर नामका नगर बसा हुआ था काते हुए उक्त निर्वाणभूमिको तारापुर ही बतलाया जिसे अनहिल बाड़ाके वनराज के राज्य में (०४६-८०६ सारंगा नहीं, जैसा कि उसके निम्न पचसे स्पष्ट है:- में एक चंपा बनियेने बसाया था। सन् ५३६ तक 'तारापुर बंदउ जिरणवरेंदु, आहूठ कोडिकिउ सिद्ध मंगु। यह गुजरातकी राजधानी रहा है।
इन सब समुल्लेखों परसे भी मेरे उस अभिमनकी' पहारके ऊपर कुछ मन्दिरोंके भग्नावशेष पड़े हुए हैं। पुष्टि होती है। ऐसी स्थिति में उक्त 'तार उर' या तारापुर छटवे फाटकके बाहरकी भीतमें डेढ़ फीटके करोष ऊंचाईतारंगा नहीं कहा जा सकता । निर्वाणकाण्डकी उस गाथा- को लिये हुए एक पदमासन दिगम्बर जैन प्रतिमा उत्कीर्ण का क्या माधार है और उसको पुष्टिमें क्या कुछ ऐति है जिसके नीचे पं० ११ अंकित है। ऊपर चढ़ने पर हासिक तथ्य है यह कुछ समझमें नहीं आया। यहां दो रास्तेसे बगजमें नीचेको उतरके दो कमरे बने हुए हैं। दिगम्बर मन्दिर है. जिनमें से एक सम्बत् १६११का बनाया उसके बाद ८३ सीढ़ी नीचे जाकर मांचीका दरवाजा पाता हुना है और दूसरा सं० ११२३ का। इससे पूर्व वहां है वहाँ एक छोटा सा मकान पहरे वालोंके ठहरनेके लिए कितने मन्दिर थे, यह वृत्त अभी अज्ञात है।
बना हुआ प्रतीत होता है। अपर जीर्ण मन्दिरोंके जो सारंगासे अहमदाबाद वापिस पाकर हम लोग 'पावा- भग्नावशेष पड़े हैं उन्हींमेसे ३-४ मन्दिरोंका जीर्णोद्धार गद' के लिए रवाना हुए । यहाँ पाकर धर्मशालामें ठहरने- किया गया है। मन्दिरों में विशेष प्राचीन मूतियों मेरे प्रवको थोदी सी जगह मिल गई। पावागढ़की अन्य धर्म- जोकनमें नहीं आई। विक्रमकी १६ वी १७वीं शताब्दीसे शालामा ललितपुर श्रादि स्थानोंके यात्री ठहरे हुए थे। पूर्वकी कोई मूर्ति उनमें नहीं हैं। एक मूर्ति भगवान
पावागढ़ एक पहादी स्थान है। यहाँ एक विशाल किला पार्श्वनाथकी सं० १५४८ की भट्टारक जिनचन्द और जीवहै। और यह ऐतिहासिक स्थान भी रहा है। धर्मशालाके राज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित विराजमान हैं उपलब्ध पास ही नीचे मन्दिर है । शिलालेखोंमें इसका 'पावकगढ़' मूर्तियों में प्रायः सभी मूर्तियाँ मूलसंघ बलात्कारगणके मामसे उक्लेख मिलता है। चन्दकविने पृथ्वीराजरासे में महारक गुणकीर्तिके पट्टधर लिप्य भ० बदिभूषण द्वारा पावकगढ़के राजा रामगोड तुभार या तोमरका उल्लेख प्रतिष्ठित स. १६४३, १६५ और की है। किया है । सन् ११.. में उस पर चौहानराजपूतोंका अधि भगवान महावीरकी एक मूर्ति सं० १६६६ की भ. कार हो गया था, जो मेवारके रणथंभोरसे सन् १२ या सुमतिकीतिके द्वारा प्रतिष्ठित मौजूद है। १३०. में भाग कर पाये थे। सन् १९८४ में सुलतान
ऊपरके इस सब विवेचन परसे यह स्थान विक्रमकी महमूद बेगहने चढ़ाई की, तब जयसिंहने वीरता दिखाई,
1वीं शताब्दीसे पुराना प्रतीत नहीं होता। हो मम्तमें सम्धि हो गई। उसके बाद सन् १९५५ में मुगल
मुगल सकता है कि वह इससे भी पुरातन रहा हो । यहाँ संभवतः बादशाह हुमायूने पावकगढ़ पर कब्जा कर लिया फिर
फिर डेढ़ सौ वर्षके करीबका बना हुआ कालीका एक मन्दिर देको अकबर नामा।
भी है। सीदियोंके दोनों भोर कुछ जैन मूर्तियां लगी हुई
जाता हो
भी पुरातन रहा
डेढ़ सौ वर्ष