________________
३५०]
अनेकान्त
[किरण ११ उन्होंने बताया-"महाराज ! लोग जैसा अर्थ करते हैं वास्तव कर गई है वे सपनेमें भी कभी भागे नहीं बढ़ सकते । इसी में इस शब्दका यह अर्थ नहीं है। इसका मतलब यह है कि प्रकार घरपर किसी अभ्यागतका तिरस्कार करना भी इसीका यह राज्य किसी धर्म-सम्प्रदाय विशेषका न होकर समस्त सूचक है कि असलियतमें धर्म अभी पारमामें उतरा नहीं है। धर्म सम्प्रदायोंका राज्य है।" वास्तवमें यह ठीक ही है जैसे धर्म कभी नहीं सिखाता कि किसीके साथ अनुचित व अशिअभी-अभी स्वामीजी (काशीके मण्डलेश्वर) ने बताया कि प्रतापूर्वक व्यवहार किया जाय । वास्तवमें भूतकालमें भारतकी भारतमें एक हजार धर्म और सम्प्रदाय प्रचलित हैं। झार जो प्रतिष्ठा थी, जो उसका गौरव था वह इसलिये नहीं था किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेषका राज्य स्थापित किया जाय कि भारत एक धनाव्य व समृद्धिशाली राज्य था और न वह तो मार्ग सम नहीं रहेगा, प्रत्युत बड़ा विषम व कण्टकाकीर्ण इसलिये ही था कि यहां कुछ विस्मयोत्पादक आविष्कारक बन जायगा । इतने धर्म सम्प्रदायोंमें किसी एक धर्म या व शक्तिशाली राजा-महाराजा तथा सम्राट् थे। इसका जो गौरव सम्प्रदाय विशेष पर यह सेहरा बांधना अनेक जटिल सम- था वह इसलिये था कि यहां के कण कणमें धर्म, सदाचार,नीति, स्याओंसे खाली नहीं है। मेरे विचारसे ऐसा होना नहीं न्याय और नियन्त्रणकी पावन पुनीत धारा बहती रहती थी। चाहिए। धर्मको राज्यक संकीर्ण व परिवर्तनशील फंदमें सन्य और ईमानदारी यहांके अणु-अणुमें कूट-कूटकर भरी हुई फंसाना राज्यको भयंकर खतरेके मुंहमें ढकेलना और धर्म थी। तभी बाहरके लोग यहांकी धर्मनीतिका अध्ययन करनेके को गन्दा व सबीला बनाना है। विमाश कारक बनाना है। लिये यहां पर आनेको विशेष उत्सुक व लालायित रहते थे।आज ये दो अलग-अलग धारायें हैं और दोनोंका अलग-अलग प्रत्येक भारतीयका यह कर्तव्य है कि वह विचार करे कि प्राज अस्तित्त्व, महत्त्व और मार्ग है। इनको मिलाकर एक करना हम उम ममृद्धिशाली विश्वगुरु भारतकी संतानें अपनी मूलन तो बुद्धिमत्ता ही है और न कल्याणकर ही।
पूंजी संभाले हुए हैं या नहीं। यदि भारतीय लोग ही अपनी
मूलपूजीको भूल बैगे तो क्या यह उनके लिये विडम्बनासंकीरता न रहे
की बात नहीं है ? कहते हुए खेद होता है कि यहां पर नित्य यह भी पाजका एक सवाल है कि अलग-अलग इननी नये धर्म व सम्प्रदायाँक पैदा होनेके बावजूद भी न तो भारत अधिक संख्यामें सम्प्रदाय क्यों प्रचलित है? क्या इन सबको की कुछ प्रतिष्ठा ही बढ़ी है और न कुछ गौरव ही ! प्रत्युत मिलाकर एक नहीं किया जा सकता। मैं मानता है कि ऐसा मन्य तो यह है कि उल्टी प्रतिष्ठा एवं गौरव घटे हैं। अगर करना असम्भव तो नहीं है फिर भी जो सदासे अलग-अलग अब भी स्थितिने पल्टा नहीं खाया और यह स्थिति मौजूद विचारधारा चली प्रारही हैं उन सबको ग्वत्मकर एक कर रही तो मुझे कहने दीजिये कि धार्मिक व्यक्ति अपनी इज्जत दिया जाय यह बुद्धि और कल्पनासं कुछ परे जैसी बात है। और शान दोनोंको गंवा बैठेंगे मैं इस विषयमें ऐसा कहा करता हूं कि पारस्परिक विचारभेद मिट जाय । जब यह भी संभव नहीं तो ऐसी परिस्थितिमें
भ्युदयपारस्परिक जो मनोमेद और आपसी विग्रह हैं उनको तो इतनं विवंचनके बाद अब मुझे यह बताना है कि वास्तवअवश्य मिटाना ही चाहिये । उनको मिटाये विना धार्मिक में धर्म है क्या? इसके लिये मैं आपको बहुत थोड़े और संस्कारको क्या तोदें और क्या लें इसका निर्णय कैसे करें? सरल शब्दोंमें बताऊँ तो धर्मकी परिभाषा इस प्रकार की जा इसलिये इस विभेदकी दीवार किसी धार्मिक व्यक्रिके लिये सकती है कि जो 'आत्मशुद्धि के साधन हैं उन्हींका नाम धर्म इष्ट नहीं। यदि परस्पर मिलकर धार्मिक व्यक्ति कुछ विचार- है।' इस पर प्रतिप्रश्न उठाया जा सकता है कि फिर लौकिक विमर्श हो नहीं कर सकते तो वे कहां कैस जाय? वे कहां अभ्युदयकी सिद्धिके साधन क्या है ? जबकि धर्मकी परिभाषा बैठेगे, हम कहां बैठेंगे। यदि हम लोग ऐसी ही तुच्छ व में कहीं-कहीं लौकिक अभ्युदयक साधनोंको भी धर्म बताया संकीर्ण बातों में उल्लमते रहे तो मैं कहूंगा-ऐसे मंकीर्ण गया है। मेरी दृष्टिमें लौकिक अभ्युदयका साधन धर्म नहीं धार्मिक व्यकि धर्मकी उन्नतिके बदले धर्मकी अवनति ही है वह तो धर्मका आनुषंगिक फल है। क्योंकि लौकिक करनेवाले हैं और वे धर्मके मौलिक तथ्यसे अभी कोसों दूर अभ्युदय उसीको माना गया है जो पारमातिरिक्र सामग्रियोंका है। जिन धार्मिक व्यकियों में संकीर्णता व असहिष्णुता घर विकास प्रापण होता है। गहराईसे सोचा जाय तो धर्मकी