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________________ समयमारकी १५वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी (सम्पादकीय) [गकिरण नं० से आगे] सारे जिनशासनको देखने में हेत उसी प्रकार यह भी बताया कि "इस गाथा श्रीकानजीम्बामोने अपने प्रवचन में कहा कि प्राचार्यदेवने जेमदर्शनका मर्म खोलकर रखा है। यह 'शुद्ध भारमा वह जिनशासन है, इसतिर जो जीव अपने कथन भी भापका कुछ संगत मालूम नहीं होता, क्योंकि शुवमात्माको देखता। वह समस्त जिनशासनको देखता गाथाके मूलरूपको देखते हुए इसमें जैनदर्शन भयका है। इस सर्कवाक्यसं यह फलित होता है कि अपने गुर जिनशासनके मर्मको खोलकर रखने जैसी कोई बात पास्माको देखने-जानन बाबा जीव जो समस्त जिनशासन प्रतीत नहीं होती। जिनशासनका बाय या स्वरूप तक भी को देखता-जानता है उसके उस देखने-जानने में हेत या उसमें दिया हुमा नहीं है। याद दिया हुआ होता तो स्मा और जिनशासनका (म्वरूपादिसे) एकस्व है। यह हेतु दूसरी शंकाका विषयभूत यह प्रश्न ही पैदा न होता कि स्वामीजीके दाग नया ही प्राविष्कृतहमा है। क्योंकि प्रस्तत 'उस जिनशासनका क्या रूप है जिसे उस रष्टाके द्वारा मूल गाथामे न तो एसा उल्लम्ब हक 'जो शुद्धामा वह पूर्णतः देखा जाता है? गाथामें सारे जिनशासनको देखने जिनश सन है और न मारे जिनशासनकी जानकारीको मात्रका उल्लेख है-उसे सार या संपादिके रूपमें सिहकरने के लिए किसी हेतुका ही प्रयोग किया गया है- देखने की भी कोई बात नहीं है। सारा जिनशासन उसमें तो 'इलिए' अर्थका वाचक कोई पद वा शब्द भी अथवा जिनप्रवचन द्वादशांग जिमवाणीके विशाल रूपको नीजिससेवा तयोगी पी लिये हुए है, उसे वाल्मदीक द्वारा-एदारमाकेद्वारा जाती। ऐसी हालत में स्वामीनीने अपने वक्त तर्कवाक्यकी नहीं-कैसे देखा जाता है, किस रष्टि पा किन साधनोंसे बातको जो प्राचार्य कुन्दकुन्द द्वारा गाथामें कही गई देखा जाता है, साचात् रूपमें देखा जाता है या प्रसाबतलाया है वह कुछ संगत मालूम न होकर उनकी निजी सान् रूपमें और प्रात्माके उन पाँच विशेषयोंका जिनकल्पना ही जान परती है। प्रस्तु: इस कल्पनाके द्वारा शासनका पूर्ण रूपमें दखनेके साथ क्या सम्बन्ध है अथवा जिस नये हेतुकी ईजाद की गई है वह प्रसिद्ध है अर्थात् वे कैसे उस देखने में सहायक होते है, ये सब बाते गागामें शुद्धामा और समस्त जिनशासनका एकत्व किसी प्रमाणस जैनदर्शनके मर्मकी तरह रहस्यम्पमें स्थित है। उनमेंसे सिद्ध नहीं होता, दोनों को एक मानने में अनेक प्रसंगतियों किसीको भी प्राचार्य श्रीकुन्दकुन्दन गाथामें खोखकर नहीं अथवा दोषापत्तियों उपस्थित होती है जिनका कुछ दिग्दर्शन रक्या है। जैनदर्शन अथवा जिनशासनके मर्मको खोलकर एवं स्पष्टीकरण ऊपर "शुद्धात्मदर्शी और जिनशासन" बतानका कुछ प्रयत्न कानजी स्वामीने अपने प्रवचन में शीर्षकके नीचे किया जा चुका है। जरूर किया है परन्तु वे उस यथार्थरूपमे खोजकर बता जब यह हेतु प्रसिद्धसाधनके रूप में स्थित है तब नहीं सके-भलंही मारमधर्मके सम्पादक उक्त प्रवचनको इसके द्वारा समस्त जिनशासनको देखने-जानने रूप माध्यकी उद्धत करते हुए यह लिखते हों कि 'उस (१५ वी गाथा) सिद्धि नहीं बनती। अभीतक सम्पूर्ण जिनशामनको देखने में भरा हुमा जनशासनका अतिशय महत्वपूर्ण रहस्य जाननेका विषय विवादापत्र नहीं था-मात्र देखने-जानने- पूज्यस्वामीजीने इस प्रवचनमें स्पष्ट किया है (खोलकर का प्रकारादि ही जिज्ञासाका विषय बना हुभा था-अब रखा है)। यह बात मागे चलकर पाठकोंको स्वतः मालम इस हेतु प्रयोगने संपूर्ण जिनशासनके देखने-जाननेको भी पर जायगी यहाँ पर मैं सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता विवादापत्र बनाकर उसे ही नहीं किन्तु गाथाके प्रतिपाच हूँकि अपने द्वारा खोखे गये मर्म या रहस्यको स्वामीजीविषयको भी झमेले में डाल दिया है। का श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके मत्थे मंदना किसी तरह भी समस्वामीजीने जिस प्रकार अपने उक तर्कवाक्यकी चित नहीं कहा जा सकता। इससे साधारण जनता म्यर्थ बावने श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-द्वारा गाथामें कही गई बतलाया ही प्रमका शिकार बनती है। अतः कानजी स्वामीने
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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