SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४] भनेकान्त जल जलौ जीव पावै स्वर्ग सुखदाई है। जैसे अपने प्रान हैं तैसे परके जान । डारे क्यों न पीर वामैं अपने कुटुम्ब ही को। कैसे हरते दुष्टजन बिना बैर पर प्रान ।। मोहि जिन जारे जगदीशकी दुहाई है।॥२ निरजन वनधनमें फिर, मरै भूख भय हान । डीक यही भाव महात्मा कबीरदासजीने भी शिवह देखत ही घूसत छुरी, निरदय अधम अजान ।। की जाने वाली मुनकि मुखस व्यक्त कराये हैं दुष्टसिंह अहि मारिये तामें का अपराध । ? मुर्गी मुबासौं कहै, जिवह करत हैं मोहि । प्रान पियारे सबनिको, याही मोटी बांध ।। साहिब लेखा मांगसी, संकट परिहै तोहि ।। भलो-भलो फल लेत है, बुरो बुरो फल देत । कहता हो कहि जात हो, कहा जोमान हमार। तू निरदय है मारकै, क्यों है पाप समेत ।। १ जाका गर तुम काटि हो सो फिर काटि तुम्हार।।३ यद्यपि अहिंसा जैनधर्मका प्राण है पर विश्वका हिन्दी न गद्य साहित्यगगनके देदीप्यमान नक्षत्र ऐसा कोई धर्म नहीं है जिसमें अहिंसाका विरोध किया ६. टोडरमलजी ने अपने 'पुरुषार्थ सिद्धयुय' परामक हो। चाहे वह हिन्दू धर्म हो, चाहे बौद्ध धर्म हो, चाहे प्रन्यकी टीकामें हिंसाके दोषोंका सुन्दर विवेचन किया है- इम्बाम हो अथवा क्रिश्चियन । इन भिन्न भिन्न मतानु -हिंसा नाम तो धातहीका है। परन्तु पात दोय यायियोंने हिंसा जैसे रत्नको पाकर उसे पालोकित प्रकारके हैं, एक तो पात्मवात, एक परषात । सो जब यह किया। अहिंसाके विषयमें व्यासजीके वाक्य स्मरण रखने भारमा कषाव भावाने परणमते अपना बुरा किया तब यग्य हैंभारमधात तो पहिले ही होय, निवस्या पीछे अन्य जीवका अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचन द्वयम् । भायु पूरा हुमा होय अथवा पापका उदय होय तो उसका परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।। भी घात होय तो उसका घातको न कर सके हैं, तिमते प्राणघातत्वयोगेन धर्म यो मन तेजनः । उसका तो पात उसके धर्म माधीन है, इसकी तो इसके सः वान्छति सूधावृष्टि कृष्णाहिमुखकोटरात ।। भावनिका दोष है इस प्रकार प्रमादसहित योगविणे अर्थात् अठारह पुराणों में केवल दो ही वचन श्रेष्ठ भास्मघातकी प्रतेक्षा तो हिंसा नाम पाया। अब भागे । ई-परोपकारसे पुण्य और पर पीटनसे पाप होता है। परवावकी अपेक्षा भी हिंसाका सद्भाव भी दिग्वावे है-- जो प्राणियोंकी हिंसासे धर्मकी इच्छा करता है वह कृष्ण -परजीवका पात रूप जो हिंसा सो दोय प्रकार है मपके मुंहसे अमृतकी वृष्टि चाहता है। एक अविरमक रूप एक परिरमय रूप है। जिम काल पाइबिल में हज़रत ईसामसीहने भी अहिंसाका उप- . जीव पर जीवका पात विष तो नाहीं प्रवते और ही कोई देश देते हुए कहा तू प्राणियोंकी हत्या मत कर । कार्य विर्षे प्रव है, परन्तु हिंसाका स्याग नाहीं किया है। हमारे राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसादजीने जैनधर्मकी विसका बाहरवा जैसे हरित कायका त्याग नाहीं और वह मान्यताके विषयमें निम्न माव व्यक्त किये है-'मैं अपने क्सिी काट विर्षे हरित काषका भक्षण भी नाहीं करै ।। को धन्य मानता हूँ कि मुझे महावीर स्वामीके प्रदेशमें जैसे जो हिंसाका त्याग नाहीं है. और वह किसी काल रहनेका सौभाग्य मिला है। अहिंसा जैनोंकी वशेष विवें हिंसा विर्ष नाही प्रवत है परन्तु अंतरंग हिमा करने सम्पति है। जगतके अन्य किसी धर्ममें अहिंसाका प्रतिपाका अस्तित्व भावका नाश न हुमा तिसको अविरमण रूप दन इतनी सूक्ष्मता और सरबतासे नहीं मिलता।' हिंसा कहिए। बहुरि जिस काज जीव परजीवके घात विष इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन तीर्थंकरोंने मामन करि वचन करि व कार्यकार प्रयत्न तिसको परिरमण चारों और जैन कवियोंने एक स्वर होकर अहिंसा पर जोर रूप हिंसा कहिये ये दो भेद हिंसाकेकडे, तिन दोङ भेदन दिया है। क्योंकि यह मानवता एवं धार्मिकताका मूख हैं। विर्षे प्रमाद सहित योगका अस्तित्व पाइये है। .. धर्मका मूलाधार अहिंसा ही है। यही कारखी कि जैन अपनी प्रसिद कृति 'बुधजन सतसई' मे कवियर कषियोंकी अन्तरवाणी भी यत्र तत्र सर्वत्र महिलासे मनुबुधजनजीभाखेटको निन्दा करते हुए कहा है प्रमाणित होती रही है। पु• सियुपाय पू. ३६-01 २.जैन शतक पू.१५।.बीर वाणी वर्ष अंक दु.सतसई १.११-१२।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy