________________
२६६ ]
अनेकान्त
[किरण
जिनशासनका जो भी मर्म या रहस्य अपने प्रवचन में हाजतमें केवल अपने शुद्वात्माका अनुभव करना यह जिनखोलकर रस्ता रेसका मूलसूत्र वही है कि 'जो शुद्ध शासन का सार नहीं कहाला सकता। अशुद्धामाओंके अनुभारमा वह जिनशासन है।' यह सूत्र कितना सारवान् भव विना शुद्धास्माका अनुभव बन भी नहीं सकता और अथवा दोषपूर्ण है और जिनशासनके विषय लोगोंको न अशुद्धामाके कथन विना शुद्वात्मा कहनेका व्यवहार ही कितना सच्चाज्ञान देने वाला या गुमराह करने वाला हे बन सकता है। अनः जिनशामनसे अशुद्धामाके कथनको इसका कुछ दिग्दर्शन इस लेख में पहले कराया जा चुका अजग नहीं किया जा सकता और जब उस अलग नहीं किया है। अब मैं जिन शासनसे सम्बन्ध रखने वाली प्रवचनकी जा सकता तब सारे जिनशामनके देखने और अनुभव करने में कुछ दूसरी बातोंको नेता हूँ।
एकमात्र शुद्धास्माका दग्वना या अनुभव करवा नहीं पाता, जिनशासनका सार
जिसे जिनशासनके साररूपमें प्रस्तुत किया गया है प्रवचन में भागे चलकर समस्त जिनशासनकी बातको वीतरागता और जैनधर्मबोरकर उसके सारकी बातको लिया गया है और उसके श्रीकानजीस्वामी अपने प्रवचन में कहते हैं कि "शुद्ध द्वारा यह भाव प्रदर्शित किया गया है कि शुद्धास्मदर्शनके प्रारमाके अनुभवसं वीतरागता होती है और वही (वोत्त- . साथ संपूर्ण जिनशासनके दर्शनको संगति विठलाना कठिन रागता ही) जैनधर्म है; जिससं रागकी उत्पत्ति हो वह है। चुनांचे स्वामीजी सारका प्रसंग न होते हुए भी स्वयं जैनधर्म नहीं है।" यह कथन प्रापका सर्वथा एकान्तदृष्टिसे प्रश्न करते हैं कि "समस्त जैनशासनका सार क्या है" भाक्रान्त है-व्याप्त है; क्याकि जैनदर्शनका ऐसा कोई भी और फिर उचर देते हैं-"अपने शुद्ध मारमाका अनुभव नियम नहीं जिससे शुद्धारमानुभवके साथ वीतरागताका करना" जब उक सूत्रके अनुसार शुद्धारमा और जिनशासन हाना अनिवार्य कहा जा सके- वह होती भी है और नहीं एक है सब जिनशासनका सार वही होना चाहिये था जो कि भी होती । शुद्ध प्रास्माका अनुभव हो जानेपर भी रागाशवाल्माका सार है न कि शुद्वात्माका अनुभव करना; परन्तु दिककी परिणात चलती है, इन्द्रियोंके विषय भोगे जाते शवाल्माकासार कुछ बतबाया नहीं गया, अतः जिनशासन- है, राज्य किये जाते हैं युद्ध लड़े जाते है और दूसरे भी का सार जो शुद्धास्माका अनुभवन प्रकट किया गया हबह अनेक राग-द्वेषके काम करने पड़ते हैं, जिन सबके उन्लेखोंविवादापस हो जाता है। वास्तवमे देखा जाय तो वह संमारी से जैनशास्त्र भरे पड़े हैं। इसकी वजह है दोनांके कारणाअशुद्धारमाके कर्तव्यका एक भांशिक सार है-पूरा सार भी का अलग अलग हाना । शुद्धास्माका अनुभव जिस नहीं है क्योंकि एकमात्र शुद्धास्माका अनुभव करके रह जाना सम्यग्दर्शनके द्वारा होता है उसके प्रादुर्भावमै दर्शनमाहया उसी में भटके रहना उसका कर्तव्य नहीं है बल्कि उसके नोय कर्मकी मिथ्यावादि तीन और चारित्रमाहनीयकी भागे भी उसका कर्तव्य है और वह हे कर्मोपाधिजनित अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी चार ऐसी सात कम-प्रकृतियोंके अपनी प्रशुद्धताको दूरकरके शुखात्मा बननेका प्रयत्न, जिसे उपशमादिक निमित्त कारण हैं और वीतरागता जिस वीत. एकान्तष्टिके कारण कार दिया गया जान पाता है। और रागचारित्रका परिणाम है उसकी प्रादुर्भूतिम चारित्रमोहइसलिये वह जिनशासनका सार नही है। जिनशासन नीयकी समस्त कर्म-प्रकृतियोंका सय निमित्त कारण है। दोनोंके वस्तुतः निश्चय और व्यवहार अथवा बाथिंक और निमित्त कारणोंका एक साथ मिलना अवश्यंभावी नहीं है और पर्यायार्थिक दोनों मूल नयोंके कथनोपकथनोंको भास्मसात् इसलिये स्वारमानुभवके होते हुए भी बहुधावीतरागता नहीं किये हुए है और इसलिये उसका सार वही हो सकता है होती। इस विषयमे यहां दो उदाहरण पर्यात होंगे-एक सम्यजो किसी एक ही नयके वक्तव्यका एकान्त पक्षपाती न बाट देवोंका और दूसरा राजा श्रेणिकका । राजा अंगिकहोकर दोनोंके समन्वय एवं अविरोधको लिए हुए हो। को मोहनीय कर्मकी उक्त साता प्रकृतियोंके पबमे शायिक इस दृष्टिसे पति संक्षेपमें यदि जिनशासनका सार कहना सम्यग्दर्शन उत्पब हुधा और इसलिए उसके द्वारा अपने हो तो यह कह सकते हैं कि-जयविरोधसे रहित जीवादि शुवास्माका अनुभव तो दुमा परन्तु वीतरागताका कारण तत्वों तथा दयोंके विवेक सहितको प्रात्माके समीचीन उपस्थित न होनेके कारण वीतरागता नहीं पा सकी और विकासमार्गका प्रतिपादन है वह जिनशासन है।' ऐसी इसलिये उसने राज्य किया, भोग मोगे, अनेक प्रकारके