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किरण]
समयसारकी १५वी गाथा और श्रीकानजी स्वामी
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राग-द्वेषों को अपने में मामय दिया तथा अपघात करके बक्षिक गृहस्थों तथा गृहत्यागियोंके लिये इन चौक मनुमरख किया । वह मर कर पहले नरकमें गया, वहाँ भी छानका विधान है और हम दोनों धर्मोके कयनों तबा उसके वह चायिक सम्यच और स्वात्मानुभव मौजूद है उल्लेखासे अधिकांश जैन ग्रन्थ भरे हुए हैं, जिनमें श्रीकुन्दपरन्तु प्रस्तुत वीतरागता पाम नहीं फटकती, नित्य ही कुन्दक चारित्तपारमाय ग्रन्थ भी शामिल हैं। इन नरक-पर्यायाभित अशुभतर लेश्या, अशुभतर परिणाम दोनों धर्मों को जिनशासनसे मजग कर देने पर जैनधर्मका
और शुभतर देह वेदना तथा विक्रियाका शिकार बना फिर क्या रूप रह जायगा उसे विज्ञ पाठक सहजमें ही रहना होता है साथ ही दुःखाका समभाव विहीन होकर अनुभव कर सकते हैं। सहना पड़ता है। इसी तरह सम्यग्दष्टि देव, जिनके शायिक यहां पर इतना और भी बतला दना चाहता हूँ सम्यक्स्व तक होता है, अपने प्रास्माका अनुभव तो रखते
किमरागचारित्र जो सब मोरसे शुभभावोंकी सृष्टिको हैं परन्तु प्रस्तुत वीरागता उनके भी का बही फटकती
पाथमे लिये होता है तथा शुभोपयोगी कहलाता है,वीतरागहै-वे सदा रागादिकमें फंसे हुए, अपना जीवन प्रायः
चारित्रका साधक हेाधक नहीं *। उसकी भूमिकामें भामाद-प्रमोद एवं क्रीडायोंमे ज्यनीत करते है पर्याय
प्रवेश किय बिना वीतर गचारित्र तक किसीकी गति भी धर्मक कारण चारित्रके पालन में सदा असमर्थ भी बने रहते हैं.
नहीं होनी वीतरागचारित्र मोषका यदि साचात् हेतु है फिर भी चारित्रसं अनुराग तथा धर्मात्माओम प्रम रखते
तो वह पारम्पर्य हेतु है। दोनों मोक्षके हेतु है तब हैं और उनमेंसे कितने ही जैन तीर्थकरोके पंचकल्याणकके
एकका दूसरे साथ विरोध कैसा । इसीसे जिस निवाबनवअवसरों पर पाकर उनके प्रति अपना बड़ा ही भक्तिभाव
का विषय वीतरागचारित्र है वह अपने साधक अथवा प्रदशित करते हैं, ऐसा बेनशास्त्रोसे जाना जाता है।
सहायक व्यवहारनयके विषयका विरोधी नहीं होता, बदिक इस तरह यह स्पष्ट है कि शुद्धास्माके अनुभवसे वीत- अपने अस्तित्वके लिये उसको अपेक्षा रखता है। जो रागताका होना लाजिमी नहीं है और इसलिए स्वामीजीका निश्चयनय व्यवहारकी अपेक्षा नहीं रखता, व्यवहारमयके एकमात्र अपने शुद्धारमा अनुभवसे वीतरागताका होना विषयको जैनधर्म न बतलाकर उसका विरोध करता है बतलाना कोरा एकान्त है।
पार एकमात्र अपने ही विषयको जैनधर्म बतलाता हुमा हमी तरह वीतरागता ही जैनधर्म है जिससे रागकी निरपेश होकर प्रवर्तता है वह शुद्ध-पच्चा निश्चयनयन उत्पत्ति हा वह जैनधर्म नहीं है. यह कथन भी कोरी एका- होकर प्रशद्ध एवं मिथ्या निश्चयनय है और इसलिये मत कल्पनाको लिये हुए है क्योंकि इससे केवल वीतरागता वीतरागतारूप अपनी अर्थक्रियाके करने में असमर्थ है; अथवा सवथा वीतरागता ही जैनधर्मका एकमात्र रूप रह क्योंकि निरपेक्ष सभी नय मिथ्या होते हैं तथा अपनी अर्थकर उस समीचीन चारित्रधमका विराध भाता है जिसका क्रिया करने में असमर्थ होते हैं और पापेक्ष मभी मय सच्चे लक्षण अशुभम निवृत्ति तथा शुभमें प्रवृत्ति है, जो व्रतों वास्तविक होते तथा अपनी प्रक्रिया करने में समर्थ होते समितियो तथा गुप्तियों बादिके रूपम स्थित है और।
है; जैसा कि स्वामा समन्तभद्र के निम्न वाक्यसं प्रकट हैजिसका जिनेन्द्रदेवन व्यवहारनयकी रटिसे अपने शासनम निरपेक्षा नया मिथ्या साक्षेपा वस्तु नेऽथेकृत (देवागम) प्रतिपादन किया है। जैसा कि द्रव्यसंग्रहकी निम्न गाथासं
*हमीमे स्वामी समन्तभदने 'रागद्वेषनिवृत्यै चरणं
प्रतिपद्यते साधुः' इस वाक्यके द्वारा यह प्रतिपादन असुहादा विरिणवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं ।
किया है कि चारित्रका अनुष्ठान-चाहे वह सकल बद-समिदि-गुत्तिरूवं ववहारण्या दुजिणभणियं ॥४५||
हो या विकल-रागद्वेषकी निवृत्तिक लिये किया साथ ही, मुनिधर्म और श्रावक (गृहस्थ ) धर्म दोनों के खोपका भी प्रसंग पाता है। क्योंकि दोनों ही प्रायः सरागचारिखके अंग हैं. जिसे व्यवहारचारित्र भी कहते x “स्वशुदाम्मानुभूतिरूप शुदोपयोगलाण-वीतरागहैं। इनके खोपसे जिनशासनका विरोध भी सुघटित होता
चारित्रस्य पारम्पर्येण साधकं सरागचारित्र प्रतिपादहैक्योकि जिनशासनमें इनका केवल उक्लेश ही नहीं
यति ।"-मयसम्राटीकायां, ब्रह्मदेवः