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अनेकान्द
[किरण
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ऐसी हालत में जो निरपेठ निश्चयनयका अवलम्बन लेते देखा है, उनकी संस्था 'जैनस्वाध्यायमन्दिर' क्या लिये हए होने वीतरागताको प्राप्त नहीं होते। इसीसे उसकी प्रवृत्तियों को भी देखा है और साथ ही यह भी देखा श्रीमतचवसरि और जयसेनाचार्यने पंचास्तिकायकी है कि रामरहित नहीं हैं। परन्तु यह सब कुछ देखते १०२ वी गाथाकी टीकामें लिखा है कि व्यवहार तथा हुए भी मरे लय पर ऐसी कोई बाप नहीं पड़ी जिसका निश्चय दोनों नयोंके विरोधसे (सापेक्षसे) ही अनुगम्ब फलिता यह हो कि पाप जैन नहीं या आपके कार्य जैनमान जमा वीतरागभाव अभीष्टसिद्धि (मोर)का कारण भर्मक काय नहीं। मैं पापको पक्का जैन समकता है. बनता है, अन्यथा दोनों नयांके परस्पर निरपेक्षसे) श्रापके कार्योको रागमिश्रित होने पर भी जैनधर्मक कार्य नहीं
मानता हूँ और यह भी मानता हूँ कि उनके द्वारा जैनधर्म 'तदिदं वीतरागत्वं व्यवहार-निश्चयाऽविरोधेनैवानु तथा समाजको कितनी ही सेवा हुई है। इसीसे भापके गम्यमानं भवति ममीहितसिद्धये न पुनरन्यथा । व्यक्तिस्वके प्रति मेरा बहुमान है-भादर है और मैं पापके -(अमृतचंद्रः)'तम.वीतरागत्वं निश्चय-व्यवहारनयाभ्यां सत्संगको अच्छा समझता हूँ परन्तु फिर भी सत्यके अनुसाध्य-साधकरूपेण परस्परसाक्षेपाभ्यामेव भवति रोषसे मुझे यह मानने तथा कहने के लिये बाध्य होना मुक्तिसिद्धये न च पुननिरपेक्षाभ्यामिति वार्तिक ।' पता है कि भापके प्रवचन बहुधा एकान्तकी भार ढले होते
-(जयसेनः ) है-उनमें जाने-अनजाने बचनाऽनयका दोष बना यदि जैनधर्म में रागमात्रका सर्वथा अभाव माना जाय
रहता है। जो वचन-व्यवहार समीचीन नय-विवक्षाको तो जैनधर्मानुयायी जैनियों के द्वारा बौकिक और पारसौकिक
साथमे लेकर नहीं होता अथवा निरपेक्ष नय या नया
अवलम्बन लेकर प्रवृत्त किया जाता है वह वचनानयके दोनों प्रकारके धमों में से किसी भी धर्मका अनुष्ठान नहीं बन सकेगा। सन्तान-पालन और प्रजा संरचनादिसे ।
दोषसे दृषित कहलाता है। बौकिक मौकी बातोदिये देवपूजा पाईन्तादिकी भक्ति म्वामी समन्तभद्र ने अपने युक्त्यनुशायम ग्रन्थमें यह स्तुति-स्तोत्रोंका पाठ, स्वाध्याय, संयम. तप, दान, या प्रकट करते हुए कि वीरजिनेन्द्रका अनेकान्त शासन सभी परोपकार, इन्द्रियनिग्रह, कषायजय, मन्दिर-मृतियोंका प्रक्रियार्थी जनों द्वारा अवश्य प्राश्रयणीय ऐसी एकाधिनिर्माण, प्रविष्ठापन, बतानुष्ठान धर्मोपदेश-प्रवचन, धर्मभवय. पतिस्वरूप बमोका स्वामी होने की शक्तिसे सम्पन है. वात्सल्य, प्रभावना, सामायिक और ध्यान-से कार्योंको फिर भी वह जो विश्वव्यापी नहीं हो रहा है उसके कारणोंही लीजिये.खो सब पारलौकिक धर्मकार्यों में परिगणित में प्रवक्ताके इस वचनाऽनय दोषको प्रधान एवं साधारण और चैनधर्मानुयायियोंके द्वारा किये जाते है। ये सब
बाघ कारण रूपमें स्थित बतलाया है। -कलिकाल अपने अपने विषयक रागभावको साथमें लिये ए होते तो उसमें साधारण बाह्य कारण है--और यह ठीक ही है. और उत्तरोत्तर अपने विषयकी रागोत्पतिमें बहुधा कारण :
प्रवकामोंके प्रवचन यदि वचनानयके दोषसे रहित हों और भी पड़ते हैं। रागभावको साथमें लिये हुए हाने चादिके
वे सम्यक् नविवक्षाके द्वारा वस्तुतस्वको स्पष्ट एवं विशद कारण ये सब कार्य या जैनधर्मकार्य नहीं हैयदि जैन- करते हुए बिना किसी अनुचित पक्षपातके श्रोताओंके सामने भर्मक कार्य नहीं है तब क्या जैनेतरधर्मके कार्य है या अधर्म रक्खे जाय तो उनसे श्रोतामोंका कलुषित प्राशय भी बदल के कार्यश्री कानजी स्वामी इनमेंसे बहुतसे कार्योको सकता है और तब कोई ऐसी खास वजह नहीं रहती स्वयं करते-कराते तथा दूसरोंके द्वारा अनुष्ठित होने पर जिससे जिनशासन अथवा जैनधर्मका विश्वव्यापी प्रचार न उनका अनुमोदन करते हैं. तब क्या उनके ये कार्य जैन- हो सका स्वामी समन्समदके प्रवचन स्वादन्यापकी धर्मकै कार्य नहीं है। मैं तो कमसे कम इसे मानने के लिये तुला तुबे हुए होने के कारण बचनामयके दोषसे रहित तैयार नहीं हैं और न यही माननेके लिये तैयार किये होते ये इसीसे वे अपने कलियुगी समयमें बीवीरभिपके सब कार्य उनके द्वारा विमा रागके ही जब मशीनों की तरह शासनतीको बबारगुणी पूरिकरते हुए उदयो प्राप्त संचालित होते है। मैंने उन्हें स्वयं स्वेच्छासे प्रवचन .खामियो कपाशयो वा श्रोतुभवक्तुपंचनाऽनयो वा करते, शंका-समाधान करने और पाहताविकी भक्ति में भाग स्वच्यासमकाधिपतित्वसामीप्रमुस्वशक्तेरपवाददेतुः ॥.