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________________ किरस] समयसारकी १५ गावा और श्रीकानजी स्वामी [२६६ हुए हैं, जिसका उल्लेख कनसीके एक प्राचीन शिलालेख में जामता बह मनास्माको भी नहीं जामता, (इस तरह) जो पाया जाता है। मोर जिस दीर्थ-प्रभावनाका अकमकदेव. जीव अजीवको नहीं जानता वह सम्यष्टि कैसे हो सकता जैसे महर्डिक प्राचार्यने भी बड़े गौरवके माथ अपने प्रष्ट है?-नहीं हो सकता। प्राचार्यो कुन्दकुन्दके इस सती माध्यमें उल्लेख किया है ।। कथनानुसार क्या श्री कानजीस्वामीके विषय में यह कहना श्रीकागजीस्वामी अपने प्रवचनों पर यदि कसा होगा कि वे रागादिके सजावके कारण मात्मा-अनारमा अंकुश रखें, उन्हें निरपेक्ष निश्चयनयके एकान्तका भोर (जीव-जीव) को नहीं जानते और इसलिए सम्यग्दष्ट बबने न दें, उनमें निरषय-व्यवहार दोनों नयोंका समन्वय नहीं है। यदि नहीं कहना होगा और नहीं करना चाहिए करते हुए उनके वक्तव्योका सामजस्य स्थापित करें, एक- तो यह बतलाना होगा कि वे कौनसे रागादिक है जो दूमरेके वकव्यको परस्पर उपकारी मित्रांक वक्तव्यकी तरह यहाँ कुन्दकुन्दाचार्यको विर्वाचत हैं। उन रागादिकके चित्रित करें--न कि स्व-पर-प्रणाशो शोके बक्तब्यकी सामने माने पर यह महजमें ही फलित हो जायगा कि तरह---और साथ ही कुन्दकन्दाचार्य ववहारदेसिदा दूसरे रागादिक ऐसे भी हैं जो जैनधर्ममें सर्वथा निषिद पुण जे दु अपरमेटिदा भावे' हम वाक्यको खाम तोरसे नहीं है। ध्यान रखते हुए उन लोगोंकों जो कि अपरमभाव स्थित जहाँ तक मैंने इस विषयमें विचार किया है और है-वीतरागचारित्रकी सीमातक न पहुँचकर साधक __ स्वामो समन्तभद्र ने अपने युकाय नुशासनकी 'एकान्तधर्माअवस्थामें स्थित हुए मुनिधर्म था श्रावकधर्मका पालन भिनिवेशमूलाः' इत्यादिकारिकासे मुझे उसकी रष्टि प्रदान कर रहे है-- व्यवहारनयके द्वारा उस व्यवहाराधर्म की है, उक्त गावात रागादिक वे रागादिक है जो एकान्तका उपदेश दिया कर जिसे तरणोपायके रूप में तीथ' कहा धर्माभिनिवेशमूलक होने है-एकान्तरूपम निर गया है, तो उनके द्वारा जिनशापनकी अच्छी ठोस सबा हुए बस्तुके किसी भी धर्म में अभिनिवेशरूप जो मिथ्याबन सकती है और जैनधर्मका प्रचार भी काफोटा सकता श्रद्धान है वह उनका मूल कारण होता है-और मोही। अन्यथा, एकान्तका भोर ढल जानेसे ता जिनशासनका मिथ्यारष्टि जीवोंके मिथ्यात्वके उदयमें जो महंकार-ममविरोध और तीर्थका लोप ही घटित होगा। कारके परिणाम होते है उनसे वे उत्पन्न होते हैं। ऐसे हा, जब स्वामीजी रागरहित वीतराग नहीं और रागादिक जिन्हें अमृतचन्द्राचार्यने उक्त गाथानोंको टीकाउनके कार्य भी रागसहित पाये जाते हैं तब एक नई में मिथ्यात्वके कारण 'अज्ञानमय' निग्या है, जहाँ जीवासमस्या और खड़ी होती है जिसे समयसारकी निम्न दो दिकके सम्यक् परिज्ञान में बाधक होते हैं वहाँ समतामेंगाथायें उपस्थित करती है वीतरागतामें भी बाधक होते है इमीसे उन्हें निषिद ठहराया गया है। प्रत्युत इसके, जो रागादिक एकान्त. परमाणुमित्तयं पि हु रागादीणं तु विज्जदे जस्म । धर्माभिनिवेशरूप मिप्यादर्शनके प्रभावमे चारित्रमोहके णवि सो जाणदि अप्पाणमयं तु सवागमधरो वि।।२०१ उदयवश होते हैं वे उक्त गाथाओंमें विवक्षित नहीं है। अप्पाणमयाएंतो अणप्पयं चापि सो प्रयाणंतो। ज्ञानमय तथा स्वाभाविक होनेसे न तो जीवादिकके परिकह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीव श्रयाएंतो ।।२०२|| ज्ञानमें बाधक है और न समता-वीतरागताकी साधनामें न गाथामॉम बतलाया है कि 'जिसके परमाणुमात्र भी AMIोते है। सम्बकरष्टि जीव विवेकके कारण रागादित विद्यमान है वह'सर्वागमधारी (ध तकेवली जेमा) मोदयजन्य रोगके समान समझता है और उनको होने पर भी प्रास्माकी नहीं जानता, जो मामाको नहीं दूर करनेकी बराबर इच्छा रखता एवं चेष्टा करता है। १. देखो, युक्त्यनुशासनकीप्रस्तावमाके साथ प्रकाशित इसीसे जिनशासनमें उन रागादिके निषेधकी ऐसी कोई समन्तभद्रका संक्षिप्त परिचय । खास बात नहीं जैसी कि मिथ्यादर्शनके उदयमें होने वाले १. तीर्थ सर्वपदार्थतत्वविषयस्याद्वादपुण्योदधे, भन्या रागादिककी है। सरागचारित्रके धारक श्रापकों तथा मुनियोंनामकसंकभावकृतये प्राभावि काले कखौ । बेनाचार्य- में ऐसेही रागका सद्भाव विपिन है-जो रागादिक समन्तभद्र्यातना तस्मै नमः सम्वतं, करवा विवियो। रष्टिविकारके शिकार है बे विचित नहीं हैं।
SR No.538012
Book TitleAnekant 1954 Book 12 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1954
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size27 MB
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