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वंगीय जन पुरावृत्त
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के लिये उस मोटरका क्या उपयोग हो सकता है? यह तरह लोग रुपया पैसाके दानको तथा भारमाकी स्वारभी हम मानते हैं कि देश और विदेशोंको परिस्थितियोंकी जम्बन शक्तिके विकासको अवहेलना करके प्रक्रम और जानकारी के लिये रेडियोका उपयोग आवश्यक है परन्तु अव्यवस्थित ढंगसे किये गये भोगादिके त्यागको त्याग अनुपयोगी और अश्लील गानों द्वारा कानीका तर्पण धर्ममें गर्मित कर लेते है। परन्तु वे यह नहीं सोचते कि
और मनोरंजनके लिए उसका क्या उपयोग हो सकता रुपया पैसाका दान मादिके चार धमों में ही यथा योग्य है? यही बात वैभवकी चकाचौंधसे परिपूर्ण महलों, चम- गभित होता है और जिसमें प्रारमशक्तिके विकासको कीले भदकीले वस्त्रों और दुष्पाच्य गरिष्ठ भोजनोंके बारेमें अवहेलना की गयी है ऐसे अक्रम और अम्यवस्थित हगसे भी समझना चाहिये।
किया गया त्याग तो धर्मकी मर्यादामें ही नहीं पा सकता अन्तिम निवेदन
है अतः प्रत्येक मनुष्य और कमसे कम विचारक विद्वानोंका ऐसे अन्धकारपूर्ण वातावरणमें उक्त दश धोका तो यह कर्तव्य है कि वे दश धर्मोके स्वरूप और उनके अर्थप्रकाश ही मानवको सद्बुद्धि प्रदान कर सकता है परन्त पूर्ण क्रमको समझनेका प्रयत्न करें तथा स्वयं उसी तंगसे इन धमकि स्वरूप और मर्यादाओंके विषय में भी लोग उनके पालन करने का प्रयत्न करें और साधारण जनको अनभिज्ञ हो रहे हैं। प्रायः लोगोका यह खयाल है कि भी समझानेका प्रयत्न करें ताकि मनुष्यमात्र में मानवताका वीयकी रा करना ही ब्रह्मचर्य है परन्तु वीर्य रक्षाकी संचार हो और समस्तजन अपने जीवनको सुखी बनानेका मर्यादा संयम और त्याग धर्म में ही पूर्ण हो जाती है इसी मार्ग प्राप्त कर सकें।
ता.१७-८-२०
उत्तम क्षमा
(परमानन्द जैन शास्त्री) येन केनापि दुष्टेन पीड़ितेनापि कुत्रचित् । चित्तको प्रशान्त नहीं होने देता, उन विभाष भावोंको क्षमा त्याज्यान भव्येन स्वगंमोक्षाभिलापिण। ॥ अनात्मभाव अथवा प्रामगुणोंका घातक समझकर उन
जिस किसी दुष्ट व्यक्तिके द्वारा पीवित होने पर भी पचा देता है-उनके उभरनेकी मामयको अक्रोध गुणकी स्वर्ग और म.क्षकी अभिलाषा वाले व्यक्तिको मा नहीं निर्मल अग्निमें जना देता है और अपनेको बह निर्मल छोड़ना चाहिये। क्योकि समा यात्माका धर्म है, स्वभाव गुणांकी उम विमल सरितामें सराबोर रखता है जहाँ तथा गुण है, वह पारमा ही रहता है। बाघ विकृतिक असाधुपनकी उस दुर्भावनाका पहुँचना भी संभव नहीं कारण प्रारमाका वह गुण भले ही तिरोहित या माच्छा होता । मोह क्षोभसे होने वाले रागद्वेष रूप विकारात्मक दित हो जाय, अथवा धात्मा उस विकारके कारण अपने परिणाम जहां ठहर ही नहीं सकते; किन्तु पारमाकी स्थिति स्वभावसे च्युत होकर राम-द्वेषादि रूप विभावभावोंम शान्त और समता रससे मोत-प्रान रहती है। कंचन, परिणत हो जाय, परन्तु उसके क्षमा गुणरूप निज स्वभावका कांच निन्दा स्तुति पूजा, अनादर, मणि-बोष्ट सुख दुख, प्रभाव नहीं हो सकता। अन्यथा वह आमाका स्वभाव जीवन मरण, संपत् विपत् भादि कार्यों में समता बनी नहीं बन सकता। क्षमा वीरस्य भूषणम्' वाक्य के अनुसार रहती है, वही व्यक्ति वीर तथा धीर और प्रारम क्षमाको वीर व्यक्तिका आभूषण माना गया है। बाम्नवमं म्वातध्यताका अधिकारी होता है। उसे ही स्वास्मोपबन्धि चमा उस वीर व्यक्तिमें ही होती है जो प्रतिकारकी सामर्थ्य अपना स्वामी बनाती है। रखता हुमा भी किसी असमर्थ व्यक्ति द्वारा होने वाले अप- किन्तु जो व्यक्ति सरष्टि नहीं, कायर और महानी है राधको क्षमा कर देता है-उसे दगह नहीं देता, और न वस्तुतत्वको ठीक रूपसे नहीं समझता, वह जरासे उसके प्रति किसी भी प्रकारका असंतोष अथवा बदखा निमित्त मिलने पर कोधकी भागमें जलने लगता है, लेनेकी भावनाको हृदयमें स्थान ही देता है। किन्तु मन प्रतीकारकी सामर्थक अभाव में भी पाई हुई मापदाका स्थिनिके विकृत होनेके कारण समुपस्थित होने पर भी प्रतिकार करना चाहता है किन्तु उसका प्रतीकार न