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अनेकान्त
[किरण
देते हुए अन्तमें जब वह अपना शरीर छोड़ता है तो वह अपने जीवन निर्वाहके साधनांको कम करनेकी शक्ति पुनः शरीर धारण नहीं करता है, केवल एकाकी प्रारमरूप प्रगट हो जावे। अपनी शत्तिको न तौल कर और अपनी होकर सर्वदाके लिए अजर और अमर हो जाता है ऐसे कमजोरियोंको छुपा कर जो भी व्यक्ति श्रावक या साधु भास्माको ही जैन मान्यताके अनुसार मुक्त, सिद्ध या बननेका प्रयत्न करता है वह अपमेको पतनके गर्भ में ही परमब्रह्म कहा जाता है।
गिराता है। इसलिये श्रावक और साधु बननेका प्रश्न मनुष्यका कर्तव्य
हमारे लिये महत्वका नहीं है हमारे लिए सबसे अधिक
महत्वका यदि कोई प्रश्न है तो यह सम्यग्दृष्टि (विवेकी) ये दश धर्म किसी सम्प्रदाय विशेषकी बपौती नहीं
बननेका ही है जिससे कि हम अपनी जीवन प्रावश्यहै। धर्मका रूप ही ऐसा होता है कि वह सम्प्रदाय
कतामोको ठीक ठीक तरहसे समझ सकें और उनकी पूर्ति विशेषके बन्धनसे अलिप्त रहता है जीवनको सुखी
सही तरीकेसे कर सकें। कारण कि हमारे जीवन निर्वाहबनानेकी अभिलाषा रखने वाले तथा प्रात्मकल्याणक
को जितनी समस्यायें हैं उनको ही यदि हमने अपनी दधिइच्छुक प्रत्येक मनुष्यका यह अधिकार है कि वह अपनी
से मोमल कर दिया तो फिर हमारा जीवन ही खतरेमें शक्ति और साधनोंके अनुसार उक प्रकारसं धर्म पालनमें
पद सकता है इसलिये भले ही हम अपनी जीवन निर्वाहअग्रसर हो ।
की आवश्यकताओंको कम न कर सके, तो चिन्ताकी बात इस प्रकार क्षमा, मार्दव, आर्जव और सत्य ये चार नहीं है परन्तु असीमित बालसाओंके वशीभूत होकर हम धर्म यदि हमारे जीवन में उतर जाय तो हम सभ्य नागरिक
अनर्गल रूपसे अनावश्यक प्रवृत्तियाँ करते रहें, तो यह रूपमें चमक सकते हैं और इन चारों धर्मोके साथ साथ अवश्य ही चिन्तनीय समस्या मानी जायगी। गौच एवं संयम धर्म भी हमारे जीवनमें यदि पा जाते हैं
माजकल प्रत्येक मनुष्य जब चारों ओर घेभवके तो हमारा जीवन अनायास ही दीर्घायु, स्वस्थ और सुखी
नमस्कारोंको देखता है तो उनकी चकाचौंधमें उसका मन बन सकता है। नवीन नवीन और जटिल रोगांकी वृद्धि
गावांडोल हो जाता है और तब वह उनके आकर्षणसे बच जो आजकल देखने में पा रही है उसका कारण हमारी
नहीं सकता है और उसकी लालसायें वैभवके उन चमअनर्गल और हानिकर माहार-विहार-सम्बन्धी प्रवृत्तियाँ
स्कारांका उपभोग करने के लिए उमड़ पड़ती हैं और तब ही तो हैं। सब दुष्प्रवृत्तियोंके शिकार होते हुए भी हम वह सोचता है कि जीवनका सब कुछ अानन्द इन्हींके अपनेको सभ्य नागरिक तथा विवेकी और सम्यग्दृष्टि मानते
उपभोगमें समाया हुआ है। आजकल प्रत्येक व्यक्ति
ग या , हैं यह प्रात्मवंचना नहीं है तो फिर क्या है?
चाहता है कि उसके पाप ऐसा आलीशान मकान हो हमार शास्त्र हमे बतलाते हैं कि आजकल मनुष्य जिममें वैभवकी सभी कलायें छिटक रही हों, उसका भोजन इतना पीय शक्ति हो गया है कि उसका मुक्ति का या और उसके वस्त्र अश्रत पूर्व और अभूतपूर्व, बढ़ियासे पूर्ण भास्मनिर्भर बननेका स्वप्न पूरा नहीं हो सकता है बढ़िया मोटरकार हो, रेडियो हो और न मालूम क्या क्या परन्तु श्रावक और माधु बनने के लिये भी तप, त्याग और हो, विश्वमें छायी हुई विषमताने मनुष्यकी लालसाओंको भाकिमन्य धर्म सम्बन्धी जो मर्यादायें निश्चित की ई उभाड़ने में कितनी अधिक सहायता की है यह बात जान है उनके दायरेमें रह कर ही हम श्रावकों और साधुओंकी कार लोगोंसे छिपी हुई नहीं है। जिनके पास ये सब श्रेणीम पहुंच सकते हैं। वस्त्रका त्याग करके नग्न दिग- साधन मौजूद है वे तो उनके भोगमें ही अलमस्त हैं लेकिन म्बर वेशका धारक साधु ठंड भादिकी बचतके लिये यदि जिनके पास इन सब साधनोंकी कमी है या विस्कुल नहीं पयाल मादिका उपयोग करता है तो उसमें साधुता कहाँ है भी केवल ईर्षा और बाहकी हो जिन्दगी व्यतीत रह जाती है अतः साधुका वेश हमें तभी स्वीकार करना कर रहे हैं वे भी नहीं सोच पाते कि भला इन वैभवके चाहिये जबकि वस्त्रादिके अभाव में शीतादिकी बाधा सहन चमकारोंसे हमारे जीवन-निर्वाहका क्या सम्बन्ध है? करमेकी सामर्थ्य हमारे अन्दर उदित हो जावे इसी तरह . हम मानते है कि जिनके पास समयकी कमी है और भाषक भी हमें तभी बनना चाहिए जबकि हमारे अन्दर काम अधिक है उन्हें मोटरकी जरूरत है परन्तु सैर सपाटे