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अनेकान्त
[किरण १
यह चावीसी 'देह' कवि द्वारा लिखी गयी है जिसमें रचनाकी भाषा जैसा कि उपर कहा जा चुका है शुद्ध कुना सन्द है। उनमें २५ छन्दोंमें २४ वीथैकरोंका हिन्दी नहीं है। किन्तु इसकी भाषाको पुराना हिन्दी कहा परिचय और शेष दो छन्दोंमें कविने अपना और बंधके जा सकता है। जिसपर अपनशका पूरा प्रभाव झलकता रचनाकाल मादिका परिचय दिया है।
है। अथवा यों कहा जा सकता है कि जिस क्रमसे अपभ्रंश कविका उदेश्य कोई साहित्यक रचनाका अथवा रसा
हिन्दी भाषामें परिवर्तित हो गयी थी. उस परिवर्तनके लंकार पूर्ण रचनाके निर्माण करनेका नहीं था। उसे तो भा हम इसमें स्पष्ट दर्शन मिलते हैं। सोधी-सादी उस समयकी बोलचालको भाषामें २४ तीर्थ- दृष्टिसे रचना अपूर्ण क्योंकि इसमें किसी एक अथवा करोंका परिचय लिखना था। यही कारण है कि कविने अधिक पन्दोका निश्चित एवं उचित रूपमें प्रयोग नहीं रचनामें उस समयकी बोलचालकी भाषाके शब्दोंका ही हुमा किन्तु कविको एक सीर्थकरके परिचय लिखने में जिला प्रयोग किया है। क्योंकि उस समयकी अपभ्रशके शब्दोंका पक्तियांकी अावश्यकता जानपड़ी उतनीही पंक्तियांका एक बोलचालमें काफी प्रयोग या इसलिये कविकी रचनामें भी छन्द बना दिया गया है।
फिर भी हिन्दीके मादिकालकी दृष्टिसे यह उत्तम वे शब्द बहुलवासे प्रवेश पा गये है। कविने रचना निर्माण करनेका निम्न उदेश्य बतलाया है :
रचना है । यद्यपि रचना पूर्ण धार्मिक है। किन्तु उसमें
काम्यत्वकी मलक होने के कारण हिन्दी साहित्य के इतिहासमें दुममु कालु पंचमर धम्मको दिन दिन हाणी।
उल्लेखनीय है तथा प्रादिकालकी हिन्दी • चनाओंमें इसे बोधि करहु फलु लेहु कहहु चवीस बखाणी ॥
उचित स्थान मिलना चाहिये। निम्न दो छन्दोंसे पाठक इसी प्रकार जिसके भाग्रहसं यह स्तवन लिखा गया है
जान सकेंगे कि रचना कितनी सरल एवं बोल चालकी उसने कविसे निम्न शब्दोंमें स्पष्ट प्रार्थनाकी है:
भाषामें लिखी हुई है एवं कितनी अर्थगम्य है। कविने मक्खय कारण हिमित देल्ह तुम्हि रचहु कवित्त' भगवान महावीरका परिचय निम्न प्रकार दिया है :
अर्थात् कर्मोंके जयके कारण हे देह तुमही कोई कुडिलपुर सुर बलाउ सिद्धारथ तहि राउ । रचना बिखो।
फ्यिकारिणी तसु राणी एय देह पभणेह।
वीर जिणेसर नन्दणु जिहि कंपायउ मेरू । स्वयं कविने भी अपना परिचय लिखा है। वे परवाह (परवार) जातिमें पैदा हुये थे। उनके धर्ममाह, पैतूमाह
सात हाथ काया पमाण लंधणु सीह सुणेहु । और उदेसाह ये तीन भाई थे। वे टिहढा नगरीके रहने
वरिस वहत्तरि जासु आउ सो कहिउ णिरूत्तु । वाले थे। इस परिचयको कविके शब्दोंमें भी पढ़िये:
पावापुरी उजाणमाहि णिव्वाणु पहंन्तु ॥
इसी प्रकार प्रत्येक छन्दमें तीर्थंकरके माता पिताका कहां जाणि कुलु श्रापणउ परवाडु भणा।
नाम, जन्मस्थान, आयु, शरीर, चिन्ह एवं जिस स्थानम्मे धमेसाहु हि पातउ आदिहि पैतू नाई। मोक्ष गये थे उसका नाम दिया गया है। पद्य कुछ अशुद्ध उदैसाह दिन माय ए तीनिउ लघु भाई । रूप में लिखे गए हैं और संशोधन के लिये दूसरी प्रति की टिहढा यार वसंतु देल्ह चवीसी गाई ।।
अपेक्षा रखते हैं। पथगत यक्ष यक्षणियोंके नाम त्रिलोयकविने रचनाको संवत् १३७॥ वैशाम्ब सुदी ३ गुरुवार
परणती आदि ग्रन्थोंसे मित्र प्रतीत होते हैं। पूर्ण रचना रोहिणी नक्षत्र एवं ब्रह्मयोगमें समाक्ष की थी जैसा कि
इस प्रकार है:
चउचीसी गीत निम्न पंक्तियोंसे प्रकट है:
आदि रिसहु पणवेघिणु अन्त वीरू जिणणाहु । तेरहसइ इकहत्तरे संवच्छर [मुभ होइ ।
अरूहु सिद्ध आचार्य अरु अज्झापति साहू ।। मामु वसंतु प्रतीत उ अक्खड तिज दिन हो।
गणहर देउ नपिणु सारद करइ पसाउ। गुम्बासम पणिज्जइ रोहिरिण रिषु सणेह। हउं चउवीसी गाउं करि ति-सुद्ध समभाउ । ब्रह्मायोग पसिद्धउ जोइस एम कहेइ ।। सा तन सहजा नन्दणु बोलाइवच्छे निरुत्त ।